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388 नक्तञ्चरस्य चरितमतिक्रान्तं क्षमोऽप्ययम् । प्रशंसन्राक्षसं वीरं ‘साधु साध्वि'त्यभाषत ।। ५९ ।। 'रे रे राक्षसवयद्य चक्रेण शतनेमिना । हरिष्ये ते शिरः कायाद्यथा पकफलं द्रुमात्' ।। ६० ।। इत्युक्ता दवराजन् वृषभा दण्डवद्भुवि । प्रणिपत्याह विश्वेशमस्तुवद्राक्षसेश्वरः ।। ६१ ।। उस राक्षस को श्राःा की अतिक्र इरने की शक्ति रखते हुए भी गवान ने उसकी प्रशंसा करते हुए “बहुत अच्छा ! बहुत अच्छा !" कहा । फिर कहा-- ' अरे राक्षस ! झरे राक्षस श्रेष्ठ ! झाज अब मैं सौधारवाले इस चक्र से तेरे शरीर के मस्तक को वृक्ष से पके हुए फल के समान अलग छरूंगा ! देवराज भगवान की यह यात सुनकर दृषभासुर पृथ्वीपर दण्डाकार गिर गया और उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लद्या । चक्रपाणे ! नमस्तुभ्यं चक्रस्य चरितं श्रुतम् । यच्चक्रेण प्रतप्तस्तु मुक्तिमेति न संशयः ।। ६२ ।। (५९-६१) यच्चक्रेण पुरा राजा कीर्तिमान्कीर्तिमाप्तवान् । त्वच्चक्रेण हतो राजन्गच्छामि तव मन्दिरम् ।। ६३ ।। एवमुक्त्वा हरेः पादौ पस्पर्श वृषभासुरः । वरं ययाचे वृषभ: 'शैलो मदभिधोऽस्त्विति । । ६४ ।। वृषभ ने कहा-हे चक्रपाणि ! आपको नमस्कार है ! मैंने 'क्र का चरित सुन रखा है, जिस चक्र से तपाया हुआ नुष्य (तप्त चक्र लेभेवाला) अवश्य ही मोक्ष पा जाता है, शाजा कीर्तिमान ने जिस चक्र की पाकर उससे अतुल कीर्ति लाभ की ! मैं आपके उस चक्र से भारे ज ने पर आपके भन्दिर श्रीवैकुण्8 में जाऊँगा । वृषभासुर ने इतना कहकर भगवाल का चरण स्पर्श किया और यह वर मांगा कि यह पर्वत मेरे ही नाम से प्रसिद्ध हो । (६२-६४)