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389 समालिङ्गच ‘भवेदेव'मित्युक्त्वा हरिणाऽथ सः । विसृष्टचक्रसञ्छिन्नस्त्यक्तवान्सकलेबरम् ।। ६५ ।। तस्माद् वृषभशैलोऽयं कृते ख्यातिमुपेयिवान् । भगवान ने वृषभासुर को छाती ले लगाकर प्रेमपूर्वक कहा–“ ऐसा ही होगा ” । फिर भगवान द्वारा प्रेरित चक्र से कटे हुए वृषभाक्षुर ने अपना शरीर त्याग किया । इस कारण सत्ययुग में यह पर्वत “वृषभावल " नाम से विख्यात हुआ । (६५) जनक उवाच ‘कथमञ्जनशैलेति त्रेतायां नाम मे वद ।। ६६ ।। जनक ने पूछा-त्रेतःयुग में पर्वत का नाम अञ्जनाचय क्यों हुआ, सो कहिये । त्रेतायुगेऽञ्जनाचलनामनिष्पत्ति तानन्द उवाच पुरा केसरिणः पत्नी ह्यञ्जना कञ्जलोचना । अनपत्यत्वदुःखेन मतङ्गमुनिमागमत् ।। ६७ ।। आनम्य मुनिशार्दूलमनपत्यातिकशिता । उवाच वचनं नेत्रनीरसिक्तकलेबरा' ।। ६८ ।। (६) खेतायुग में अञ्जनाचल नाम की संसिद्धि शतानन्द ने कहा-एक समय केशरी की स्त्री कमलनयनी अज्जना पुत्रहीनता के दुःख से व्याकुल होकर मतङ्ग मुनि के पास आयी । वह मुनिवर की नमस्कार करके सन्तानहीनता के दुःख से दुःखी तथा स्वेद से तर होकर यह कहने लगी। (६७-६८)