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391 उपवासरता बाला बाह्यभोगविवर्जिता । काष्ठवत्पर्यवस्थाप्य शरीरं स्वात्मनः शुचिः ।। ७६ ।। मतङ्ग मुनि को इस वाणी को सुनकर अञ्जनादेवी नारायण पर्वत पर गई। वहाँ उन्होंने स्वामि-सरोवर में स्नान, अश्वत्य की प्रदक्षिणा, वराह भगवान की नभस्कार तथा सरोवर का पवित्र जलपान करके आकाश गंगा में जाकर, पति तथा मनिबरों की आज्ञा पाकर, उपवास में अनुरक्त और बाह्य भोगे से वजित होकर, अपने पवित्र शरीर को काष्ठ के समान कड़ करके तपस्या करनी लारम्भ को । (७३-७६) पूर्णे संवत्सरे जाते वायुदेवो महाबलः । फलमाहृत्य भक्ष्यार्थ प्रत्यहं ह्यदान्मरुत् ।। ७७ ।। अथैकस्मिन्दिने वायुः फले वीर्यमपूरयत् । वीर्यगर्भ फलं तस्याः प्राक्षिपत्करसम्पुटे ! ७८ ।। फलं सा मन्यमाना हि क्षुधार्ता तदभक्षयत् । ततो गर्भः समुदभूदञ्जनायाश्च भूमिप! ।। ७९ ।। इस प्रकार एक वर्ष समाप्त होने एर महाबल वायुदेव उनको प्रतिदिन आहार के लिए फल लाकर देने लगे । एक दिन वायु ने उनको देने के फल में अपना वीर्य भर दिया और वह वीर्यगर्भफल उनकी अञ्जलि में दे दिया । वह भूखी तो थीं ही, उसको फल ही समझकर खा गई । हे राजन ! तब अञ्जना के गर्भधारण हो गया । (७६-७९) मुनीनामभवद्धर्षों वायुगर्भसमुद्भव । अथ सा दशमासान्ते सुषुवे पुत्रमुत्तमम् ।। ८० ।। हनूमन्तमिमं प्राहुर्मुनयो वीतकल्मष । वायुदेव से गभत्पत्ति जानकर मुनिजनों को परम हर्ष हुआ। दस महीने पूरे होने पर अञ्जना ने उत्तम पुख उत्पन किया ! निष्पाप मुनिवरीं ने उस पुत्र का [८०) ।