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23 वैकृण्ठ स्वर्ग ते, सूर्य लोकों से और अपने-अपने निवास स्थानों से प्राणिमात्र को अधिक प्यारा है । पुण्यकानन सम्पन्न यह पर्वत तो भगबान का रम्य स्थान है । मन्त्रों, तपों, यज्ञों, तथा कास्यकम, की सिद्धि एवं अन्यान्य सिद्धियाँ यहाँ हीं होती हैं । मनुष्यों को यहाँ किसी तरह का विघ्न नहीं होता है। यहाँ थोड़ी ही तपस्या से अभीष्ठों को सिद्धि हो जाती है। यहाँ पर सभी पवित्र एवं पुण्य तीर्थ रहते हैं । (१४-१७) य एनं सेवते नित्यं श्रद्धाभक्तिसमन्वितः । ज्ञानार्थी ज्ञानमाप्नोति द्रब्यार्थी कनकं बहु ।। १८ ।। पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति नृपो राज्यं च विन्दति । व्यङ्गश्च साङ्गसदूपं पशून् धान्यानि विन्दति ।। १९ ।। य यं कामयते भत्र्यस्तं तमाप्नोति सर्वदा । क्रीडाद्रेः कारणभेदेनाऽनेकनामानुवर्णनम् चिन्तितस्थ च सिद्धचा तु चिन्तामणिमिमं विदुः ।। २० ।। केचिद् ज्ञानप्रदत्वाच्च ज्ञानाद्रिरिति तं विदुः । सर्वतीर्थभयत्वाच्च तीर्थाद्रि प्राहुरुत्तमाः ।। २१ ।। पुष्कराणां च बाहुल्यात् गिरावस्मिन्सरस्सु पुष्कराद्रि प्रशंसन्ति मुनयस्तत्वदर्शिनः ।। २२ ।। गिरावस्मिस्तपस्तेपे धमऽपि स्वामिवद्धये । तस्मादाहुर्वेषाद्रिं तं मुनयो वेदपारगाः ।। २३ ।। जो कोई श्रद्धा एवं भक्ति से इस पर्वत की नित्य सेवा करता है वहज्ञान का अभिलाषी ज्ञान, द्रव्यार्थी द्रव्य, अनन्त सुवर्ण, पुत्रार्थी पुत्र, राज्यार्थी राज्य, अंग भगवाले सुन्दर रूप, पशु, धन धान्य-सब कुछ पा लेता है । मनुष्य जो जो कामना करे वह सभी पाता है । इस पर्वत पर सिद्धियों के चिन्तन मात्र से ही लाभ होने से यह चिन्तामणि कहा जाता है-ज्ञान प्रदान करने के कारण ज्ञानाद्रि, सभी तीर्थमय होने से तीथििद्र तथा अनन्त रमणीय पुष्करों के रहने के कारण पुष्कराद्रि आदि नामों से इसे तत्त्व