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अञ्जना व्रतमास्थाय पुत्रं प्राप गिरीश्वरे । तस्मादञ्जनशैलोऽयं लोके विख्यातकीर्तिमान् ।। ८१ ।। इस पर्वत श्रेष्ठ पर अञ्जना ने व्रतधाश्ण कर पुत्र पाया, इसलिए यह पर्वत अञ्जनाद्रि-नाम से प्रसिद्ध हुआ । (८१) 392 द्वापरयुगे शेषाचलनामनिष्पत्तिः जनक उवाच सन्तोषो ह्यभवन्मह्य श्रुत्वा तन्नामकारणम् । द्वापरे शेषशैलेति कथं ख्यातिर्भविष्यति ।। ८२ ।। शतानन् उवाच द्वापरयुग में शेषाचल नाम की संसिद्धि जनक ने कहा-इस नाम को संसिद्धि का कारण सुनकर मेरा मन बहुत ही प्रसन्न हुआ } अब आष यह कहिये कि द्वापर में इस पर्वत का नाम शेषाचल क्यों हुआ । (८२) पुरा वैकुण्ठनगरे द्वारि शेषं समादिशत् । जानन् भगवतो भावं सोऽतिष्ठद्भाविकर्मणि ।। ८३ ।। चिकीर्षिते मारुतेन द्वारि जाग्रत्कुतूहली । देवाधिदेवो भगवान्रेमे च रमया सह ।। ८४ ।। तस्मिन्काले महाराज ! मारुतस्तु कदाचन । अकस्मात्कारणात्प्राप्ता भगवन्त जनादनम् ।। ८५ ।। द्वारे तं रोधयामास रुक्मदण्डेन सर्पराट् । किमर्थ रुध्यते मूर्ख! कार्यस्य महती त्वरा' । इत्युक्ते वायुना शेष उवाच वचनं पुनः ।। ८६ ।। शतानन्द ने कहा-एक समय वैकुण्ठ नगर में श्री भगवान ने शेषजी को दरवाजे पर बैठने की अज्ञा दी । तदनुसार शेषजी ने वायु द्वारा किये जानेवाले