पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४११

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भविश्य कर्म में भगवान के अभिप्राय को समझकर जागते हुए श्रौतूहल से द्वार पर पहरा देना प्रारंभ किया । उधर देवाधिदेव श्रीविष्णु भी श्रीलक्ष्मी के साथ विहार कर रहे थे । उसी समय अकस्मात वायुदेव वहाँ भगवान के पास (जाने के लिए) अये ! नागराज ने सोने की छड़ी से वायू को द्वार पर रोक दिया } !' अरे मूर्ख ! मुझे क्यों रोकता है? मुझे कार्य करने की बड़ी शीत्रता है ।”–ऐसा वायुदेव से कहे जाने पर शेष ने उत्तर दिया । (८३-८६) 393 शेष उवाच ---- “अहमाज्ञाधरो विष्णोम् त्वमन्तःपुरं गम्:' । इति तस्य वचः श्रुत्वा जगत्प्राणोऽब्रवीदिदम् ।। ८७ ।। शेष ने कहा-की आज्ञा मानकर बैठा हूँ, तुम भीतर मत जाओो । मैं िवष्णु शेष के इस वचन को सुनकर जगत्प्राण वायु ने कहा । (८७) वायुरुवाच जयस्तु विजयश्चैव संशप्तौ मुनिभिः पुरा । अहङ्कारेण तौ जातौ कुम्भकर्णदशाननौ !! ८८ ।। विस्मृतौ किं त्वया मूर्ख ! द्वारपत्ये नियोजितौ । तद्वाक्यान्ते राजेन्द्र ! प्रजज्वाल विषोल्बणः । चव गर्हयन्वचनैस्तीक्ष्णैर्जगत्प्राणमहीश्वरः ।! ८९ ।। वायु बोले-पहले जय-विजय पार्षद अपने अहङ्कार के कारण सनकादि मुनियों से शाप पाकर रावण तथा कुम्भकर्ण नामक राक्षस हुए थे । अरे मूर्ख ! क्या तू उस बात को भूल गया ? वे श्री तेरे ही नाई द्वारपाल के काम कर नियुक्त हुए थे । इस वाक्य को सुनते ही विष से भरे हुए नागराज जगत्प्राण वायुदेव को कड़ी-कड़ी बातों से अपमानित करते हुए जल उठे । (८८-८९) शेष उवाच ---- किं गरिष्ठं वचः प्रोक्तं जीवनेच्छा न विद्यते ? । कालेनानुगतो लोको नैव जानाति मोहितः? ।। ९० ।। 51