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394 त्वं तादृङ् नरवद्दण्ड्यो वृथा मोहात्प्रभाषसे । बले ज्ञाने विरागे च विष्णुभक्तो न मत्समः ।। ९१ ।। सदा मेऽन्तःपुरे वासः पुत्रादप्यधिको हरेः । लोकानां च हितार्थाय हितार्थ जगदीशितुः । स्थापितोऽस्मि द्वारपत्ये लक्ष्म्या नारायणेन च ।। ९२ ।। शैष ने कहा-क्ष्यों घमण्ड की वातें करता है? क्या जीने की आशा नहीं है? जिसका काल आ जाता है, वह मोहित होकर कुछ भी नहीं जानता । तू मोहयश व्ये बोलता है। इसलिए तू भी बैसे ही मनुष्य की तरह दण्ड देने के योग्य है । सुनो, बल, शान और वैराग्य में मेरे बराबर विष्णुभक्त कोई भी नहीं है । मेर निवास सदा अन्तपुर में है। मैं श्रीहरि को पुत्र से भी आधिक प्यारा हूँ। लोक और भगवान के हित के लिए ढापाव के काम पर स्वर्ग लक्ष्मी और नारायण से रखा गया हूँ ! (९०-९२) बिडालोऽन्तःस्थितो वापि बहिष्ठेभसमो न हि । शयानं रत्नपर्यङ्के राजानमपि सेवते ।। ९३ ।। कश्चिद् दूतो नियुक्तस्तु पर्यङ्काधिष्ठितः स्वयम् । किमाधिक्यं तस्य शेष! पुत्रे का न्यूनता वद ।। ९४ ।। तयोर्विवादो ह्यभवच्छेषवाय्वोर्महात्मनोः । लक्ष्म्याऽवबोधितः श्रीमानुत्तस्थौ गरुडध्वजः ।। ९५ ।। किमर्थं क्रोशसे शेष ! कः पुमानागतः परः ? इत्युक्तो देवदेवेन फणिराजोऽभ्यभाषत ।। ९६ ।। दायु ने कहा-सुनो, बिल्ली वर के भीतर रहने से भी बाहर रहनेवाले हाथी के बराबर नहीं होती ! एक सेवक रन के पलङ्ग पर सोनेवाले राजा की प्रेरणा में स्वयं पलंग पर बैठकर सेवा करता है ! भला शेष ! बतलाओ तो, उस सेवक से