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3985 श्री भगवान ने कहा-हे पुत्र ! इस महाभिमानी शेष के साथ कलह वयों कर रहे हो ? इस प्रकार हरि की वाणी रूपी अमृत को दोनों कानों से पीकर अति भक्तिमान वायु चुप हो गथे । (१०१) शेष उवाच ---- अहं समर्थो भगवन् ! बले ज्ञाने तव प्रिये । मत्समो नास्ति भूलोके नाके दा ब्रह्मसमनि ।। १०२ ।। सरीसृपवचः श्रुत्वा प्रहसन्फणिनं हरि । ‘साधुसाध्विति सम्भाव्य चोवाच फणिनां पतिम्।। १०३ ।। शेष ने कहा-मैं बल और ज्ञान में आपके प्रियजनों में श्रेष्ठ हूँ। मेरे समान भूलोक, स्वर्ग एवं ब्रह्मलोक में दूसरा नहीं है । श्रीहरि ने शेष के इस वचन को सुनकर मुस्कुराते हुए उनसे “ साधु-साधु !” ऐसा सम्मान पूर्वक प्रशंसा करत हुए कहा । श्रीभगवानुवाच ' न वाङ्मात्रेण पौरुष्य क्रिया केवलमुत्तरम् बलावले परीक्ष्यन्तां देवाश्रेन्द्रपुरोगमाः ।! १०४ ।। अत्रैवोत्तरदिग्भागे पर्वतं मेरुनन्दनम् । स्वकायरज्जुना बद्ध्वा बलं ते यावदस्ति हि ।। १०५ ।। तावतैव बलेन त्वं संयुक्तः सुस्थिरात्मना । तिष्ठ भद्र ! महाभाग! विषफूत्कारगुम्भितः ।। १०६ ॥ श्री मगवान ने कहा—केवल वाणी ही से पौरुष निश्चित नहीं होती, किन्तु क्रिया ही इसका उत्तर है। तुम दोनों के बलाबल की इन्द्रादि देवता परीक्षा फर देखें । यहाँ पर उत्तर दिशा की और सुमेरु पर्वत का पुत्र एक पर्वत है । हे भद्र! तुम्हारे अंग में जितनी शक्ति हो, उतनी शक्ति से अपने शरीर-रूपी रस्सी द्वारा उस पर्वत को लपेटकर, अपने विष को फूकते हुए, स्थिरतापूर्वक निश्चल बने रहो । (१०५-१०६) (१०२-१०३)