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398 झस प्रकार शेष और वायु दोनों महात्मओं की पारस्परिक स्पर्धा के कारण संसार में उपल-पुथल होने से हा-हाकर मच गया । फिर ब्रह्मादि देवताओं के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भी जब वायु शान्त न हुए, तब नागराज ने भगवान् के भावों को जानकर देवताओं को सन्तुष्ट करते हुए अपने चार फणों में से किसी एक फण को थोड़ा-सा ढीला कर दिया ! (११३) ततः प्रर्वकुतो वेगं मारुतस्य महात्मनः ।। ११४ ।। कनिष्ठाङ्गुलिमात्रे तु प्रदेशे श्लथबन्धने । महावेगस्य सम्पर्कात्पर्वतो भोगिसंयुतः ।। ११५ ।। योजनान्यतिलक्षाणि दक्षिणाभिमुखो ययौ । अनन्तर यहात्मा वायु के वेग से कनिष्ठिका (छोटी) अंगुली ही के बल बराबर बन्धन ढोली हो गया और जोर करते हुए भहावेग भगवात वायु के सम्पर्क भात्र ही से वह् पर्वत शेष सहित वहाँ से लाखों योजन दूर दक्षिण की और (११५) मेरुस्तुष्टाव नृपतेः बलदेवं महाबलम् ।। ११६ ।। त्रायतां त्रायतां स्वामिन्पुत्रं बालं भवान्मम' ! एवमुक्तो मेरुणाऽयं तत्पुत्रं पर्यपालयत् ।। ११७ ।। स्वर्णभुख्या महानद्याः प्रतीरे च तथोत्तरे । स्थापयामास राजेन्द्र ! गिरिराजं सपन्नगम् ।। ११८ ।। मेरु ने पुत्र के लिए बलदेव (वायु) की स्तुति की, कि “हे स्वामिन ! मेरे बालक पुत्र की रक्षा कीजिये ! रक्षा कीजिये !” यह सुनकर वायुने उस मेरु पुत्र पर्वत की रक्षा की । उन्होंने शेष सहित उस पर्वत को उत्तर की और स्वर्णमुखी नदी के पश्चिम किनारे २खा दिया । (११८) ततो वायुं सुराणाः बोधयामासुरादरात् । अयं शेषांशजो वायो ! शैलः शैलात्मजेश्वरः ।। ११९ ।।