पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४१७

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399 हरेः सञ्चोदनेनैव जातः स्वाऽवासहेतवे । व्याजेनैव त्वया नीतस्तेन स्वर्णमुखीतटम् ।। १२० ।। त्वत्संवादच्छलेनैषः स्वस्थानात्खानितोऽहिना । मायावी भगवानित्थं केवलं त्वां व्यपोहयत् ।। १२१ ।। तदद्य फणिराजं त्वमन्तरङ्ग हरेरिमम् । प्रसादयापराद्धोऽसि वृथा तस्मिन्महात्मनि ।। १२२ ।। फिर देवताओं ने प्रेम के साथ वायु को समझाया कि हे वायु ! यह शैलात्मजेएवर पर्वत शेष के अंश से उत्पन्न है, मगधवान के आवास के लिये उनकी प्रेरणा से प्रकट हुआ है। इस विवाद के छल से भएवान ने तुम्हारे द्वारा इसकी यहाँ इस नदी के तीरपर ला रक्खा है ! तुम्हारे संवाद के मिस मे शेष ने इसे उखाड़ा तथा मायावी विष्णु ने इस प्रकार तुभको मोहित किया । इसलिए अब तुभको उचित है कि श्रीविष्णु के अन्तरंग (भीतरी मित्र) शेष जी की प्रार्थना कर उन्हें प्रसन्न करो । उस महात्मा के ऊपर कोप कर तुमने ठपर्थ ही अपराध किया है । इति सम्बोधितो देवैर्हितकांक्षिभिरादरात् । शेषं गतमदः पश्चात्तुष्टाव मरुतां पतिः ।। १२३ ।। (१२२) क्षमस्व मम दौरात्म्यमज्ञानेनागतं विभो । त्वयीह भगवान्साक्षादागमिष्यति वै हरिः ।। १२४ ।। मयाऽपचरितं मौख्यन्महाभागे वृथा त्वया । इत्थं प्रसादयामास फणिराजं तदा मरुत् ॥ १२५ ।। निवरत्वात्प्रसादं स चकार मरुति स्वयम् । देवताओं के इस तरह समझाने पर वायु का मद नष्ट हो गया तथा वह शेष जी की स्तुति करने लगे कि हे प्रभु ! अज्ञानधश की हुई मेरी दुष्टता को छाप क्षमा कीजिये । यहाँ आपके ही ऊपर श्रीहरि स्वयं. वास करेंगे । मैंने