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400 मूर्खता से वृथा ही आप महात्मा के साथ अपराध किया है । वाथुने इस प्रकार उस समय शेष जी को प्रसन्न कर लिया और क्रोध नहीं होने से शेष जी ने वायु पर स्वयं कृपा की । (१२६) इत्थं शेषांशजं शैलं शेषेण परिवेष्टितम् ।। १२६ ।। स्वावासहताहरणा वाहित वायुना छलात् । राजञ्छेष निभित्तेन शेषाचलमिमं विदुः ।। १२७ ।। हे राजन ! इस प्रकार (वायु और शेष में परस्पर स्पर्धा होने के कारण) अपने निवास के लिए श्रीहरि ने वायु से मंगवासर शेष से लपटे हुए इस पर्वत को यहाँ स्यापित कराया । इसमें शेष जी के निमित्त होने के कारण इस पर्वत को नाम शेषाचल हुआ । कलियुगे श्रीवेङ्कटाचलनाभनिष्पत्तिप्रकारः जनक उवाच 'कलौ वेङ्कटशैलेति कथं नाम महामुने' ।। १२८ ।। कलियुग में श्रीवेङ्कटाचल नाम की संसिद्धि जनक ने पूछा-हे महामुनि ! कलियुग में इस पर्वत का नाम श्रीवेङ्कटाचल क्यों हुआ । १२८) पुरा पुरन्दरा नाम समयाजा दृढव्रतः । कालहस्त्याख्यनगरे सत्यवाग्ब्रह्मणोऽभवत् ।। १२९ ।। अपुत्रस्यापि विप्रस्य नाभूद् दुःखं सुताप्तये । दैवेन पूर्वपुण्येन वृद्धस्यास्य सुतोऽभवत् ।। १३० ।। (१२७) (