पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४१९

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0 चकार नाम्ना स सुतं माधवं विप्रसंसदि । पित्रोपनीतो बालस्तु ववृधे चन्द्रवन्नृप ! ।। १३१ ।। वेदवेदाङ्गतत्वज्ञः सर्वविद्याविशारदः शतानन्द ने कहा-पहले कावस्तिक्षेद्ध में सोमयज्ञ करनेवाला, दृढ प्रतिश, सत्यभाषी, पुरन्दर नामक एक ब्रह्मण था । पुत्रहीन होने पर भी वह पुत्र पाते के लिये दुःखी नहीं था । दैववश पूर्वं पुण्थ से इस ब्रह्मण को वृद्धावस्था में पुत्र हुया । ब्रह्मणों की सभा में उस पुत्र का नाम उसने माधव रखा। पिता के द्वारा समय पर उपवीत संस्कार पाकर, वेद और वेदाङ्गों के तत्व का ज्ञाता, सकल विद्याओं में दक्ष यह बालक चन्द्रमा के उमान बढ़ने लगा । - (१३२) ततः कालान्तरे पुत्रं सदारं तं चकार ह।। १३२ ।। स चन्द्रलेखग्रारेमे बहुकालं व माधवः पञ्चयज्ञपरो नित्यं पञ्चाननसमद्यतिः ।। १३३ ।। त्रिःसप्तवर्षों रेजे स द्वितीय इव भास्कारः । फिर कुछ शमय बीतने पर उस ब्राह्मण ने पुत्र का विवाह कर दिया । वह माधव अपनी स्त्री चन्द्रलेखा के साथ बहुत काल तक विहार करता रहा। वह ग्रदा पश्चयज्ञ झरनेवाला, सिंह के समान तेजस्वी, कान्तिमान एवं इक्कीस वर्ष की षवस्थाबाला दूछरे सूर्य के ऐसा तेजस्वी था । (१३) सा कंन्या पाण्डयदेशीया पाण्डयानां चतथाििप्रया ।। १३४ ।। पत्यौ सुप्ते स्वयं शिश्ये पत्यौ भुक्ते त्वभुङ्क्त च । पाण्डथ देश के लोगों की प्यारी; पाण्डघराजा की कन्या, वह चन्द्रलेखा पति के सो जाने पर सोती और पति के भोजन करने पर भोजन करती था । ..-(१३४) कदाचिद्विप्रपुत्रस्तु दिवा सङ्गमतत्परः ।। १३५॥,