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24 दशीं मुनिगण पुकारा करते हैं तथा अपनी वृद्धि के लिये धर्म भी यहाँ तपस्या करता है, अत एव वेदपारंगत मुनिवगों ने इसे वृषाद्रि नाम से गाया है । (१८-२३) शातकुम्भ स्वरूपत्वात्कनकाद्रि च तं विदुः । द्विजो नारायणः कश्चित्तपः कृत्वा महत्पुरा ।। २४ ।। ऐच्छदस्य स्वनाम्ना च व्यपदेशं मुरारितः । तस्मान्नारायणाद्रि तं विदुरुत्तमपूरुषाः ।। २५ ।। वैकुण्ठादागतत्वेन वैकुण्ठाद्रिरिति स्मृतः । हिरण्याख्यविनाशाय प्रह्लादानुग्रहाय च ।। २६ ।। नारसिंहाकृतिर्जज्ञे यस्मादस्मात्स्वयं हरिः । सिंहाचल इति प्राहुस्तस्मादेनं मुनीश्वरा ।। २७ ।। अञ्जना च तपः कृत्वा हनूमन्तमजीजनत् । तदा देवाः समागत्य देवसाहाय्यकारकम् ।॥ २८ ॥ । यस्मात्पुत्रमसूतासौ जगुस्तस्मादिमं गिरिम् । अञ्जनाद्रि वराहाद्रि वराहक्षेत्रलक्ष्मत ।। २९ ।। नीलस्य वानरेन्द्रस्य यस्मान्नित्यमवस्थितिः । तस्मान्नीलगिरिं नाम्ना वदन्त्येनं महर्षय ।। ३० ।। सुवर्ण के समान चमक एवं स्वरूप के कारण उसे कनकाद्रि कहते हैं । प्राचीनकाल में नारायण नामक किसी ब्राह्मण ने यहाँ तप करके मुरारि भगवान से अपने नाम पर ही इसकी नाम प्रसिद्धि के लिए प्रार्थना की थी, अतः उत्तम पुरुष इसे तब से नारायणाद्रि भी कहते हैं। यह वैकुण्ठ से आने के कारण बैकुण्ठाद्रि कहलाता हैं । हिरण्यकश्यपु के विनाश तथा प्रह्लाद के ऊपर अनुग्रह के लिए, स्वयं भगवान ने इसपर जब से नरसिंह की आकृति धारण की, तब से इसको सिंहाचल कहते हैं। जब अंजना देवी ने तपकर हनुमान जी को उत्पन्न किया तब सभी देवता अकर देवताओं के सहायक पुत्र हनुमान के जन्म देने के कारण इसे अंजनाद्रि के नाम से पुकारा । वराहक्षेत्र होने के कारण इसे वराहाद्रि नाम से पुकारते हैं । महावीर वानरेन्द्र नील के स्थायी निवास होने के कारण महर्षिगण इसको नीलगिरि कहते है। (२४-३०)