पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४२१

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

403 भाक्षव बोला-हे भामिनि ! तुम मेरे सुख का कारण होओ तथा मेरे भनौरव को पूरा करो । तुमको पुत्र होने का सौक्षार ठौर पीछे पति के लोक की प्राप्ति होगी । पति के बचन को सुमक स्त्री ने पति से कह । (१४९); गच्छामि जलहेतोस्तु गच्छ त्वं पुरतो मम । तदा जगाम राजन्द्र ! कुशाय स स्वभावतः ।। १४२ ।। सा जगामाऽथ पानीयपात्रमादाय भामिनी । तामन्वगान्माधवोऽपि वटकूटमभिद्रुतः।। १४३ ॥ तत्रान्तरे विप्रपुलो दशन्यां स्त्रियं पुनः । वनान्तरे वसन्ते च वसन्तीं द्रुममूलगाम् ।। १४४ । धवलाम्बरसम्बद्धो कटिमेखलयान्विताम् । सुनासां सुभगां सुभ्रं नीलालकविराजिताम् ।। १४५ ॥ मुमाह विप्रस्ता दृष्टा सुवण्णा सुपयाधराम् । न्निग्धकञ्चुकसम्बद्धां कोकिलस्वरद्धिताम् ।। १४६ ।। अञ्जनालिस्नयनामन्त्यजां राम'कुन्तलाम् । पादेन विलिखन्तीं गां जानुस्थितशिरोरुहाम् ।। १४७ ।। दृष्टा खिन्नमना भूत्वा चिन्तयन्ब्रह्मनिर्मितम् । स भार्था प्रत्युवाचेदं 'गच्छ प्राणप्रिये ! गृहम् । इच्छा मे पूर्णतां प्राप्ता त्वद्भक्त्या परितुष्यतः ।। १४८ ।। चन्द्रलेखा ने कहा-मैं पानी के लिए (कहकर) जाऊँगी, आप मेरे आगे चलिये । हे राजेन्द्र ! तब वह स्वाभाविक रीति से कुश लेने को चला । वह स्त्री भी ब्र के पात्र को लेकर चली । भाधव मी उस स्त्रो के पीछे-पीछे वट वृक्ष की छाया में शीघ्रता से दौड़ । इतने ही में उस ब्राह्मणकुमार ने बनान्तर में