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404 वसन्तऋतु में पेडू के नीचे बैठी हुई, स्वेत इस्त्र पहने फमर में मेखला (क्ररधनी) से युक्त, सुन्दर नासिका एवं भौवाली सुहागिनि एवं काचे श से शोभित एक दूसरी स्त्री को देखा । वह ब्राह्मण उस सुन्दर वर्णकाली, कंधुकी चौली) से कसे हुए सुन्दर स्तनवाली, कोयल-सी भीठी स्वरवाली तथा आंखों में अञ्जन लगायी हुई कृन्तला नाम की एक अन्त्यज (चाण्डाल) की स्त्री को देखकर मोहित हो गया । पैर से पृथ्वी को खोदती हुई, घुटनों तक पहुँचे हुए केशवाबी उस स्त्रीको देखकर उसने ब्रह्मा की कृति के बारे में दुःखित मत से सोचते-सोचते अपनी स्त्री से यह कहा-प्राणयेि । तेरी भक्ति से सन्तुष्ट होकर मेरी इच्छा पूरी हो गयी, सुम धर को यायी । युक्तमुक्त त्वया भद्र ! गच्छामि भवनं स्वकम् चन्द्रलेखा ने कहा-है भद्र ! जाती हूँ। आपने योग्य ही कहा; मैं भर्तुराज्ञामुपानीय चन्द्रलेखा गृहं गता ।। १४९ ।। अपने घर को (१४९) (१४८) यावद्भच्छति सा भार्या तावत्तत्र स्थितोऽभवत् । गतायां स्वप्रियायां तु तां बालां परिचिन्तयन् ।। १५० ।। शनैर्जगाम राजेन्द्र ! स्मरेण हृतचेतन । पति की आज्ञा पाकर चन्द्रलेखा वर चलो गयी । ज्योंही उसकी पत्नी गयी, त्योंही द ब्राह्मण वहीं व्हर या । अपनी स्त्री के चले जाने पर उस युवती कुन्तला की चिन्ता करता हुआ कामदेव के द्वारा राये हुए मनवाला वह् श्राह्मण श्रीरे-धीरे उसके पास गया । (१५०) समीपस्यं मुनिं प्रेक्ष्य सा राजन्पृथुलोचना स्वरभेदं प्रकुर्वन्ती वाक्यमूचेऽथ माधवम् ।। १५१ ।। है राजन ! उस बड़ी-धी आँखोंवाली ने छपने पास में ठहरे हुए मुनि को {१५१)