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407 तस्मादहं सुरूपत्वात्त्वयि भोगं करोमि च । नरकं वा मृतो यास्ये पितृभिः सह सुस्मिते ।। १६२ ।। माधव ने कहा-लवण-समुद्र में उत्पन्न नाना प्रकार के रत्नों को तेजस्विी हीने के कारण ही देवतागण स्वीकार करते हैं। हे सुन्दर हास्यवाली ! इसलिये लेरे सौन्दथ्यें के कारण ही मैं तुझसे भोग करूंगा, चाहे मरने पर मैं अपने पितरों के साथ नरक ही में जाऊँ । इत्येवमुक्ता द्विजबालकेन रुोद कन्या तरुणारुणाभा । (१६२) कुन्तलोवाच दिवौकसो विप्रवरो विमोच्यो दोषादमुष्मादसतीप्रसङ्गात् ।! १६३ ।। दिग्देवता याश्च गणाधिपा ये भान्विन्दुपूर्वाश्च नवग्रहा ये । शृण्वन्तु वाक्यं मम ते वृथाऽयं विप्रो मृतिं यास्यति विललाप महाराज ब्राह्मणार्थ सुमध्यमा । ब्राह्मण बालक से इस प्रकार कहे जाने पर वह बालसूर्य के समान टाल रंगवाली कन्या रो-टोकर कहने लगी-हे देवताओी ! व्यभिचारिणी स्त्री के इस प्रसंग दोष से यह ब्राह्मणं श्रेष्ठ बचाने के योग्य है । जो दिकृपाल, गणेश, रवि सोमावि नवग्रह हैं, वे मेरे वाक्यको सुने । यह ब्राह्मण पापिनी के संग से व्यर्थ ही मृत्यु को प्राप्त हो जायगा ! हे महाराज ! वह सुन्दर फटिबाली ब्राह्मण के धास्ते विलाप करने लगी । {१६४) मा स्पृशाद्य महीदेव! पापिनीं व्यभिचारिणीम् ।। १६५ ।। क: स्पृशेदझिमार्तः सन्सर्प व्याघ्र गजं द्विज ! । परपत्न्यो हि तत्तुल्याः किमु चण्डालकन्यका ।। १६ ।।