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488 उत्तमं पदमास्थाय नीचा इच्छन्त्यधोगतिम्। ज्ञानिनो न तथा विप्रास्तव बुद्धिस्तु तादृशी । १६७ ।। हे ब्राह्मण ! मुप्त पापिनी व्यभिचारिणी को मत छुओ । हे द्विज ! दुःखी होने पर भी सर्प, व्याघ्र और गज को कौन छूता है; परस्त्री भी उन्हीं के तुल्य है, फिर चाण्डालकन्या की तो बात ही वया । नीच मनुष्य उत्तम पद पर रहकर भी अधोगति की इच्छा करते हैं, ज्ञानी ब्राह्मण वैसा नहीं चाहते, तुम्हारी बुद्धि भी वैसा ही है। (१६७) जाती द्वे निर्मिते पूर्वं विष्णुना द्विजसत्तम । स्त्रीत्वं पुंस्त्वं यथा तद्वच्चातुर्वण्र्य च भूसुरः ।। १६८ । ब्राह्मणस्य ब्रह्मयोन्यां रन्तुमिच्छा प्रशस्यते । तथान्येषां च वर्णानां स्वस्वजातौ प्रशस्यते । ९६९ ।। विपरीतमिमं मन्ये धर्मत्यागं द्विजन्मनाम् । हे ब्राह्मण ! पूर्व में जिछ प्रकार ब्रह्मा से स्त्री और पुरुष दो जातियाँ ही बनाई गई, उसी प्रकार वारो वर्ण औो बनाये गये। ब्राह्मणे ही ब्राह्मणयोनि में रमण करने की इच्छा ही प्रशंसनीय है ; इसी प्रकार दूसरे-दूसरे थणों को भी अपनी-अपनी जाति में ही यह अच्छी होती है . द्विजातियों में इसके विपरीत होना धर्मत्याय ही में समझती हूँ । . (१६९) शरीरं तद विप्रेन्द्र ! वेदपूतं विशेषतः ।। १७० ।। ऋतुकाले च यन्मातुस्तव पित्रा सभागमे । रेतः सृष्टं वेदपूतं गर्भाधानमिदं विदुः ।। १७१ । । सामन्त कल्पयामासुमन्त्रवदमयाद्वज । दशमे मासि सम्प्राप्ते प्रासूत जननी तव ।। १७२ । ।