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एवं पवित्र (भूमि तीयों) में जाने से तुम्हारे चरण पवित्र ही यये हैं । शरीर के साथ संग करने को तुम किस प्रकार प्रशंसनीय समझते हो । इल प्रकार के (१७८) ममापि श्रुणु माहात्म्यं देहास्यामितदोषिणः । अवाच्यवचनैरजिह्वा मे दह्यते सदा।। १७९ । । सुरामांसाशनेनैव जठरे गुल्ममागतम् । व्यभिचारकथालापात्कण्णौं मे शिथिलीकृतौ ।। १८० ।। पादा जारगृह् गत्वा पाषाणसदृशा मम । गोवधान्मे करौ क्रूरौ यमदण्डसमप्रभौ ।। १८१ ।। एतादृशस्य देहस्य त्वया सङ्गः कथं भवेत् ? ।। उत्तमो नीचतां प्राप्य कथं स्वर्ग गमिष्यति ? ।। १८२ ।। परस्त्रीसङ्गदोषेण बहवो नरकान् गताः । तस्मादुत्तिष्ठ भद्रं ते तव दासी भवामि भोः । वनितावचनं श्रुत्वा वाक्यमूचे द्विजात्मजः ।। १८३ ।। अव जनेकों दोषवाले मेरे शरीर की झी बड़ाई सुन लो । मेरी जिह्वा नहीं कहने योगक्ष कर्कश बातों से अदा जलती रहती हैं; मदिरा और मांस के भोजन से मेरे उदर में गुल्म आ गया है, व्यभिचार की बातों को सुनने से मेरे कर्ण धक गये हैं। जार (उपपति) के घर जाने से मेरे पैर पत्थर के समान हो गये हैं तथा यमराज के दण्ड के सनात् कठोर मेरे दोनों हाघ गोवध करने से कठिन हो गये हैं। मेरे इस प्रकार के शरीर से तुम्हारा संग क्यों कर होगा? उत्तमं पुरुष नीता को प्राप्त होकर किस प्रकार स्वर्गे जा सकता है ? पराई स्त्री के साथ संसर्ग करने के दोध से बहुत लोग नरक को चले गये हैं। इसलिए मैं प्रार्थना करती हूँ कि हे द्विज ! उठो, तु सुखी होगे !- मैं तुम्हारी दासी रहूँगी । स्ली के इस वचन को धुलकर वह ब्राह्मणपुल बोला । (१८३)