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पूर्वक पकड़कर उत्तभ भोग भोवा ; ब्राह्मण से बोलौ ! 42 वह मनस्मिनो स्वी सम्भोग के पश्चात उस (१८९) कुन्तलोवाच अद्यप्रभृति भो विप्र ! पतिस्त्वं मम भूसुर ! त्यज यज्ञोपवीतं त्वं मुण्डयित्वा शिरस्तथा ।। १९० ।। अन्वाह्मण्यमुपागम्य भुङ्क्ष्व गामासमुत्तमम् । पिब मद्योदकं शीघ्र चण्डालत्वमुपाश्रितः ।। १९१ ।। कुन्तलाने कहा-हे विप्र ! आज से तू मेरा पति हुआ । हे ब्राह्मण ! यज्ञोपवीत को छोड़ दो और चाण्डालत्व को प्राप्त हो, अपने शिर को मुड़ाकार , ब्राह्मणत्वको छोड़ शीघ्र ही उत्तन गोमांस ऋा भक्षण एवं मद्यपान झरो । (१९१) तट्टाक्यमाकण्यं तदा तयोक्तं सर्वमाचरन् । चण्डालाचरिताचारं जगाम विधिचोदितः ।। १९२ ।। विप्रस्तया समेतस्तु कृष्णवेणीनदीतटम् । द्वादशाब्धं वसन्विप्रस्तत्सङ्गपरिमोहितः ।। १९३ ।। प्रारब्य से प्रेरित वह विश् सब उसकी बातों को सुनकर उसीके कथनानुसार सब कुछ झरता हुआ चाण्डाल के द्वारा किये जानेवाले कामों को करने लगा । उसके संग से स्रोहित होकर वह ब्राह्मण उसके साथ कुष्णवेणी नदी के तट पर बारह (१९३) अनित्यत्वाच्छरीराणां कालपाशेन यन्त्रिता । जगाम मरण राजन्कु कुन्तला नालकुन्तला ।। १९४ ।। तथा विरहितः श्रीमान्माधवो दुःखकातरः । अचरद्भुवनं सर्वभुन्मादेनोद्भ्रमन्निव ।। १९५ । ।