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414, दैवात्तत्कर्मणैवासौ तदाऽभूदूतकल्मषः । तस्माद्यो मानवो भक्त्या कुर्योत्तीर्थावगाहनम् ।। २०२ ।। पितृश्राद्धं पिण्डदानं मुक्तिस्तस्य न संशयः । हे राजन ! उन राजा लोगों ने वहाँ पार्वणश्राद्ध करते हुए आनन्दपूर्वक श्राद्ध के योग्य पिण्डदान किया : मध्फुटव ने भी उस शुम तीर्य में स्नान कर उसी प्रकार पार्वण श्राद्ध करता हुआ मृतिका के पिण्ड बनाकर दैवयोग से पितरों को श्रद्धापूर्वक दिया और उसी कमै से वह तत्काल पाप मुक्त हो गया, इसलिये जो मनुष्य भक्तिपूर्वक तीर्थ में स्नान, पितृश्राद्ध एवं पिण्डदान करेगा, उसकी मुक्ति अवश्य हो । जायगी । (२०३) मृत्पिण्डं कृतवान्विप्रः पुण्यक्षेत्रे पुरातने ।। २०३ ।। किं वर्णयामः पुरुषोत्तमस्य क्षेतस्य तीर्थस्य च पुण्यशक्तिम् । मृत्पिण्डदानात्पितरश्च तस्य मुक्ति प्रपन्ना मुरवैरिशासनात् ।। २०४ ।। उस ब्राह्मण ने उस प्राचीन पुष्भूमि में केवल मृतिका का ही पिण्ड-वान किया था; इस पुरुषोत्तम कै तीर्य क्षेत्र का माहृम्य किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है, जबकि मृतिा हे पिण्डदान से ही उसके पितर भगयान श्रीमुरारि की आज्ञा से मुक्ति पा गये । (२०४) प्रभाते विमले जाते राजानो राजसत्तम ! । समारोहन् गिरिश्रेष्ठं सपुत्राश्च सबान्धवाः ।। २०५ ।। तेषामनुपदं राजन् ! प्राप शेषगिरिं च सः । विश्राम्यन्तः सर्व एव तस्थुस्तत्र तत्र च ।। २०६ ।। सोऽपि तस्थौ महाराज ! माधवो गिरिमस्तके ।