पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४३३

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415 है नृप श्रेष्ठ ! प्रातः काल सुकाय होने पर वे राजा लोग अपने पुत्रीं तथा बान्धवों के साथ उस श्रेष्ठ पर्वत पर चढ़ने लगे । - हे राजन ! व (भाधव) भी उनके पीछे-पीछे शेषपर्वत पर पहुंच गया । वे सभी जहाँ जाँ विश्राम करने के लिए ठरे, हे महाराज ! वह माधव मी उस-उस पर्वत के शिखर पर ठहरा । (२०६) भूधरस्पर्शमात्रंण तदघ पयंकम्पत !! २०७ ।। माधवस्याभवत्कष्टं यथा वै मक्षिकाशिनः । वमन्तमेनं स्वं पापं समावृणवन् समन्ततः ।। २०८ ।। तदङ्गजातः कोऽप्यशिरद्रिमाहात्म्यतस्तदा । प्रजज्वाल दहन् पापं सुरामांसाशनोद्भवम् ।। २०९ ।। तस्य दुर्गन्धधूमेन वासिताः सर्वदेवता । तद्भावं वेदितुं देवा ब्रह्मरुद्रपुरोगमाः ।। २१० ।। विमानानि विचित्राणि भासयत्तः समागताः । खभार्गे संस्थिताः सर्वे दृष्ा तच्चरितं नृप ! ।। २११ ।। ववर्युः पुष्पवर्षाणि माधवस्योत्तमाङ्गके । पर्वत के स्पर्श-मात से ही उस ब्राह्मण के पाप कांपने लगे । मक्षिका भक्षण करनेवाले व्यक्ति के समान माधव को कष्ट होने लगा ।. अपने पापों को वमन करता हुआ उसे देखा सबों ने लोगों चारों और से घेर लिया । पर्वत के माहात्म्य से उसके शरीर से उत्पन्न कोई अग्नि उसकें मद्य और उसे-मांस भक्षण से उत्पन्न पापों को भस्म करती हुई जलने लगी। उसके दुर्गन्धि युक्त घूम से सव देवता भर ये । इस अवस्था की जानने के लिए ब्रह्मा, रुद्र इत्यादि देवतागण विचित्र विभानों का प्रकाश करते हुए आ गये। हे राजन ! अकाश में ठहरे हुए सब देवता लोग उसके चरित्र को देखदार माधव के मस्तक पर पुष्प-वृष्टि करने वने । (२११) दृष्टा पितामहः श्रीमान्विमानादवरुह्य सः ।। २१२ ।।