पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४३९

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सेवित्, चारी पुख हे उत्पन्न बेद के ऋङद से सुस्रोति, दिपालगणों के । 42 पतितं स भृगुं दृष्टा नोवाच वचनं विधिः ।। १५ ।। तं भत्वा किञ्चिदज्ञानादपूज्यं मुनिपुङ्गवः । अलञ्ध्वा स्वात्मनः कार्थ कैलासं स ऋषिर्ययौ ।। १६ ।। कैलासगिरिमासाद्य तदाद्राक्षीत् त्रिलोचनम् । कामुक पार्वतीदेव्या क्रीडन्तं निजमन्दिरे ।। १७ ।। (?४) ब्रह्मा पड़े हुए भृगुजी को देखकर कुछ ही नहीं बोडे ? वह मुनिश्रेष्ठ उन ब्रह्मा को (उनके) ज्ञान के कारण पूज्य जानक्षर अष्टले कार्य को सफल ल (१६) पाथ, तस्मिन् काले तमायातं नाजानात्कामुको हरः । आगतं सा मुनिं दृष्ा पार्वती लज्जयाऽवदत् । १८ ।। । त्यज शीघ्र महाबाहो ह्यागतो मुनिपुङ्गवः शैलाशपर्वत पर पहुँचकर वहाँ उन्होंने तीच वेत्रवाले, काभरी एवं अपने मन्दिर में पार्वती देवी के साथ विहार करते हुए विाजी को देवा !” उछ समय कामी महादेव ले आते हुए युनि को नहीं जाना । पार्वती जी आये हुए मुनि को देखध्र लज्जा से बोली, “हे महाबाहु ! मुनियों में श्रेष्ठ भृगुजी आये हुए हैं, {{भुझो ) शीघ्र छोड़ दीजिये । " (२९) इति तस्या वचः श्रुत्वा क्रोधाताम्रविलोचनः ।। १९ ।। तं हन्तुमद्रवच्छीघ्रमृषिः शापान्निराकरोत् । शशाप स ऋषिः शम्भु 'लोके त्वं लैव पूज्यसे । २० ।।