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422 त्वं शेफःपूजनेनैव लोके ख्यातिं गमिष्यसि ' ! पार्वती के इस प्रकार के वाक्य को सुनकर शिवाजी लाल-लाल थांखें बनाकर क्रोध से उस मुनि की मारने के लिए शीघ्र उद्यत हो गये । मुनि ने शाप से (उनको) निराकरण किया और दूसरा शाप दिया कि तू संसार में पूजा नहीं जायगा ; लिंगपूजन से ही तुम्हारी प्रसिद्धि होगी । (२०) इत्युक्त्वा स ऋषिश्चागाद्वैकुण्ठं हरिमन्दिरम् ।। २१ ।। प्राकारगोपुरद्वारनवतोरणभूषितम् । चतुर्दिक्षु चतुर्दारपालकैरुपशोभितम् ।। २२ ।। तत्र शय्यागृहे रम्ये शेषमञ्चकशायिनम् । लक्ष्म्या समेतं देवेशं ददर्श स भृगुस्तदा ।। २३ ।। ताडोरसि गोविन्दं भृगुः पादतलेन तम् । ताड्यमानो हरिः साक्षादुत्थाय विनयान्वितः ।। २४ ।। पपात भगवान् भक्त्या ऋषिपादसरोरुहे । आलिलिङ्गेऽथ भक्त्यैव चोवाच ऋषिपुङ्गवम् ।। २५ ।। तब ऐसा कहकर दह ऋषि प्राकार (घेरा), ओोपुर (फाटक) द्वार एवं नये तोरण (वन्दनवार) से एवं चारों दिशा में चार द्वारपालों से सुशोभित श्रीहरि के भन्दिर वैकुण्ठ में गये । वहाँ पर भूगुव्ऋषि ने मनोहर शय्यागृह में लक्ष्मी के साथ शेषशय्या पर शयन करनेवाले, देवताओं के स्वामी गोविन्द, भगवान विष्णु को देखा और उनको पैर से वक्ष में मारा । मारे जाने पर भी साक्षात भगवान हरि ने उठकर मुनि के चरण कमलों में विनय एवं भक्ति से तृभस्कार किया और भक्ति. पूर्वक उनका आलिंगन करके कहु । (२५)