पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४४१

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

423 भूगुं प्रति श्रीवैकुण्ठनाथोक्तविनीतवचनम् श्रीभगवानुवाच : किमर्थ त्वमृषिश्रेष्ठ ! मच्छरीरं कठोरकम् । अताडयोऽजरायुक्तमभेद्यं देवदानवैः ।। २६ ।। वज्रादष्टगुणां विद्धि मच्छरीरे कठोरताम् । किमर्थ ताडितं विप्र ! कोमलाङ्घ्रतलेन तत् ।। २७ ।। पादौ ते कोमलौ दिव्यौ मच्छरीरसमागमात् । कियद् दुःखं समापन्नौ न जानामि द्विजोत्तम !' ।। २८ ।। इत्युक्त्वा द्विजपादौ तौ प्रक्षाल्योष्णोदकेन वै । दधार शिरसा भक्त्या विप्रादोदकं शुभम् ।। २६ ।। जगृहे सकुटुम्बश्च सर्वलोकं विडम्बयन् । विबुधा दर्शनेनैव पुनन्ति च जगत्त्रयम् । इत्युक्तो देवदेवेन ऋषिश्चागाद्धरातलम् ।। ३० ।। भूगु को कहे हुए भगवान् के नम्र वचन श्री भगवान ने कहा-हे ऋषिश्रेष्ठ! आपने किसलिए मेरे जरयुक्त होने पर भी कठोर, देवता और मनुष्यों से अभेद्य शरीर पर प्रहार किया ? हे विा ! मेरे शरीर को वज्र से आठ गुना कठोर समझिये, इस शरीर को आपने अपने कोमल तलवा से किसलिए मारा ? हे द्विजों में श्रेष्ठ ! आपके कोमलः और दिव्य चरण मेरे शरीर के साथ लगने से कितने दुःख पाये हैं, मैं नहीं बातता । भगवा श्रीनिवास ऐसा कहकर ब्राह्मण के उन चरणों की उष्णजल से धोकर सम्पूर्ण लोक का अनुकरण करते हुए तथा “महर्षिण दर्शन मात्र से ही तीनों लीक को पवित्र कर देते हैं”-ऐसा कहते हुए सकुटुम्ब भक्ति पूर्वक मङ्गल विप्रचरणोदक शिर पर धारण किये । तत्पश्चात ऋषि भूलोक चले गये । (३०)