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424 भगवतो भृगुकृतसात्विकदेवतात्त्रसमर्थनम् ऋषीणामग्रजातीनां सभायां स ऋषिस्तदा । बोधयामास तान् सर्वान् हरिः सर्वोत्तमः स्वयम् ।। ३१ ।। हरिः सर्वोत्तमः साक्षाद्रमा देवी तदन्तरा । तदधो विधिवाण्यौ च तदधः शर्वपूर्वकाः ।। ३१ ।। एवं तरतमाज्ज्ञेयाः सुरदैत्यनरेषु च । इत्येवं बोधिता विप्रा भृगुणा तत्त्ववेदिना । हरिं निश्चित्य सर्वेशं चक्रुस्तस्मै भखार्पणम् ।। ३३ ।। भूगुकृत श्रीभगवान के सात्विक् देवता होने का समर्थन देवताओं के भी व श्री लक्ष्मीदति से इधु प्रकार कहे जाने पर भृगुमुनि पृथ्वीतल पर आये और उन्होंने उस ब्राह्मणों तथा ऋषियों औी सभा में उन सबों को यह बताया कि देवता, दानद और मनुष्यों में श्रीहरि ही स्वयं सवसे उत्तम है । साक्षात भगवान सब से उत्तम्, तत्पश्चात लक्ष्मीदेवी, उनके नीचे ब्रह्मा और सरस्वती एवं उनके नीचे शिव इत्यादि इष्ट प्रकार हे उच्च-नीच समझे जाते हैं। इस प्रकार उन्होंने उन सब तत्व के जाननेवाले क्षुषि से सभक्ताये जाने पर श्रीहरि को ही सर्वश्रेष्ठ निश्चय कर उन्हीं को यज्ञ अर्पण कर दिया । (३३) भूगुपादाहृतिकुपितायाः लक्ष्म्याः क्रवीरपुर गमनम् ततस्तु भगवान् देवः एकान्ते निजमन्दिरे ! सार्ध च रमयाऽतिष्ठत्तदोवाच रमा हरिम् ।। ३४ ।। जब अपने एकान्त मन्दिर में लक्ष्मीजी के साथ श्री भगवान लक्ष्मीजी ने श्रीहरि से कहा । बैठे थे, तब {३४)