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425 लक्ष्मीजी को ढूंढ़ने के लिए भगवान विष्णु का श्रीवेङ्कटाचल पर आना भालक्ष्मी के चले जाने तथा द्वापर के अन्त होने पर अट्ठाइसर्वे कलियुग में लीला करने के लिये मनुष्य शरीर धारण, करनेवाले नारायण मायावी गोविन्ध भगवान यह सोचकर कि जिस दशा में, जब, जिस काम से और जिस प्रकार से इस लक्ष्मी का प्रेम-कलह शन्ति होगः, मैं वही और उसी प्रकार छपा, परम उत्तम वैकुण्ठ को छोड़कर प्रस्थान किया ! (३९) गङ्गाया दक्षिणे देशे योजनानां शतत्रये ।। ४० ।। सुवर्णमुखरी नाम नदीनां प्रवरा नदी । शुकस्य वरदा पुण्या ह्यगस्त्यमुनिपूजिता ।। ४१ ।। तस्या एवोत्तरे तीरे क्रोशार्धद्वयमात्रके । श्रीवेङ्कटगिरिर्नाम वर्तते पुण्यकाननः ।। ४२ ।। सुवर्णगिरिपुत्रस्तु सर्वतीर्थसमन्वितः । साक्षाच्छेषावतारोऽसौ सर्वधातुविराजितः ।। ४३ ।। वैकुण्ठसदृशो दिव्यो नारायणसमाश्रयः । शेषमारुतसम्वादादागतः पुण्यकाननः ।। ४४ ।। योजनत्रयविस्तीर्णस्त्रिशद्योजनमायत: । - सब नदियों में श्रेष्ठ, शुकदेव को वरदान देनेवाली एवं अगस्त्यमुनि से पूजित, आनन्द को देनेवाली गङ्गा के दक्षिण और तीन सौ योजल पर सुवर्णमुखरी भासक एक नदी है । उसके उत्तर और अढ़ाई कोस पर पुण्य कानन से युक्त, सुवर्ण पर्वत का पुत, सब तीथों से युक्त, साक्षात शेष का अवतार, सब धातुझों से शोभित, वैकुण्ठ के सनान, दिव्य, श्रीनारायण का आवास, शेष और वायु के विवाद से लाया हुआ एवं तीन योजन चौड़ा और तीख योजन लम्बा श्री वेङ्कटाचल नामक पर्वत है । (४)