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428 जिसका मुख श्री वेङ्कटाचल मध्यभाग नृसिंह पर्वत और श्रीपर्वत पुच्छ भाग हैं, जो सब तीर्थो एवं सब वृक्षों में भरा हुआ, सव धातुओं, कुन्द, मन्दार, पलस (कटहल), प्लक्ष, उदुम्वर, किंशुक (पलाश), पिचुमन्द, कपित्थ (फैत) पारिजात, तितिी (इमली), जम्बू के मण्डले, बड़े-बड़े कृष्ण अगर, ताल, हिन्ताल, पुग्नाग, देवदारु आदि वृक्षों से शोभित, हँस और कारण्ड से भरा हुआ, ब, कोक, और शुक से युक्त, कपोत, क्षीर हँसादि एवं मृग, सिंह, शार्दूल, शरम, सुकर, हस्ती, बन्दर, जम्बुक, (शृगाल), भालू, कस्तुरीमृग, महिष, सर्प, खङग (डा) तथा गोमायु से बसा हुआ, मल्लिका, मालती जाती, नन्द्यावर्त, चम्पक, अशोक, पुन्नाथ, केतकी, स्वर्ण केतकी इत्यादि पुष्पों से शोभित, ऐसा मनोहर तथा पवित्र बनवाला है। जिसके वृक्ष की देवताण, भृग ही मुनिवगै; पक्षी ही पितर, पाषाण ही यक्ष तथा किन्नर हैं । इस प्रकार के इस पर्वतपुत्र श्री वेङ्कटाचल एवं श्रीहरि को, श्रह्मा, शिव, इन्द्र इत्यादि भी नहीं जानते हैं । बहुत कम शक्ति या प्रभादथाले मनुष्यों की फिर बात ही क्या है? (५४) इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे श्रीवेङ्कटावलमाहात्म्ये भगवतः श्रीवैकुण्ठाद्वेङ्कटाचलागमनवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।