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428 तृर्दीयोऽध्यायः शहिमा स्वामी तीर्थ की, प्रभु वल्मीक प्रवेश । गाय रूप होइ देव सब, बसे गगन नृप देश ।। १३ गोपाल को श्रीत कर, पान करन गोदुग्ध ! गोप मन नृप आगमन, ईश शाप नृप मुग्ध ।। २ ।। स्वामिपुष्करिणीमाहात्म्यम् तस्योपरि बरा दिव्या स्वामिपुष्करिणी शुभा । मत्स्थकच्छपसम्बाधा जलकुक्कुटभूषिता ।। १ ।। शिशुमारगणाकीर्णा मण्डूकस्वरहुड्कृता । तीरजैवृक्षसंधैश्च तुझैराचुम्बिताम्बेरा ।। २ ।। गङ्गादिसर्वतीर्थानां जन्मभूमिर्विराजते श्रीस्वामिपुष्करिणी का माहात्म्य शतानन्द ने कहा-उ श्रीवेङ्कटाचल पर्वत पर श्रेष्ठ, दिव्य, शुभ, मत्स्य तथा कच्छप से भरा हुबा, जलकुक्कुट से शोभित, शिशुमारों (प्राहों) से भरा हुआ, भेढ़ ने शब्द से पूर्ण, तीर पर लगे हुए श्राकाश तक ऊँचे वृक्षों के शोभित एवं गङ्गादि सब तीथों की षन्मभूमि श्री स्वामिपुष्करिणी विराजमान है । (२) तस्यां ये स्रान्ति मनुजास्ते धन्याः पुण्यवर्धनः ।। ३ ।। धनुर्मासेि सिते पक्षे द्वादश्यामरुणोदये । कांक्षन्ति विबुधश्रेष्ठाः मञ्जनं तज्जले शुभे ।। ४ ।।