434 तत्र गत्वा च भक्त्यैव वल्मीके क्षीरसेचनम् । जगन्नाथस्य सम्प्रीत्यै धेनुरूपी पितामहः ।। २७ ।। चकारानुदिनं हे नैव क्षीरं ददौ तदा । । पश्चात बङ्ग त समय बीत जाने पर वह ब्रह्मा स्वाभिपुष्करिणी के तीर पर वल्मीक में ठहरे हुए हरि की जानकर भन में आनन्दित हुए, एवं चारों ओर से दुधार के द्वारा उनको भिगोने लगे । तब से प्रतिदिन धेनु-रूपी श्रह्मा राणा के गौओं के साथ यहाँ जाश्र भगवान की. प्रसन्नता के लिए भक्लिपूर्वक वल्मी में दुग्ध छोड़ देते थे और तब से घर पर दूध नहीं देते थे । (२७) चिरमेवं गते काले चोलराजसती स्वयम् ।। २८ ।। धेनुपालं समाहूय वचनं चेदमब्रवीत् । गवां पालक ! दुर्बुद्धे ! पयोऽस्याः किं करोषि वै ।। २९ ।। किं त्वं भुङ्क्षेऽथवा वत्सो भुङ्क्ते ? तद्वद मे द्रुतम्' । इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर एक दिन स्वयं चोलराधमदीषी मे रवाले दुर्बद्वि को बुलाकर यह बात कही डि हे । गौओं के पालन करनेवाथे । तू इस गौ के दुग्ध को क्या करता है? क्या तू पक्षण करता है? आ भन्नड़ा ही पी जाता है, यह मुझे शीघ्र बसाओी ! (२९) इति तस्या वचः श्रुत्वा गोपालो भयविह्वलः । उवाच वचनं मन्दं राजभाय सगद्भदम् ।। ३० ।। गोक्षीरपायिनं श्रीनिवासं प्रति गोपालकृताडनम् न जातेऽहं च तत्कर्म न मया पीयते पयः । स्वयं पिबति वा धेनुर्वत्सो वेति न विद्महे ।। ३१ ।। सत्यं वचनमेतद्धि विचारं कुरु भामिनि ।
पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४५२
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति