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438 हुई आयाज मे रऽ हिपी (रानी) के कहा कि मैं इस काम को नही जानता । मैं वृथ भी नही पीक्षा, स्वयं गौही दूध को पीती है वा बछड़ा पी जाता है। यङ्क भी मैं नहीं जानता । हे भामिनी ! यह बात सत्य है, इसका आप विचार कीजिये ।। ३२ ।। इति गोषवचः श्रुत्वा सा सती विह्वलेक्षणा ।। ३२ ।। 3ाडयामास तं गोपं रज्जुभिश्चर्मनिर्मितैः । ततः एरदिले प्राप्ते ताडितो राजभार्यया ।। ३३ ।। क्षण्ठाङ्घ्रबद्धरज्जु तां त्यक्त्वा तत्पृष्ठतो ययौ । इस प्रकार पवाडे । ववन को सुनकर इस सती ने क्रोध से वेळ तरेरकर इस ग्वाले को वर्म की रस्सी (चाबुन्न] से मारा : सब रानी से पीटा गया व ग्वाला तुसरे दिन उस् गौ के कण्ठ में रस्सी बांधकर उसको छोड़ उसके पीछे-पीछे गया ।। ३३॥ धेनुः प्रायाथ यल्मीककं दिव्यं तद्भरिभन्दिरम् ।। ३४ ।। अभ्यषिञ्चत्पयोभिश्च स्वपयोधरसम्भवैः । तां दृष्ट्वा धेनुः कोपात्कुठारं हस्तमालकम् ।। ३५ ।। उद्धृत्य तरसा तस्याः वधोद्योगं समाचरत् । गाय के दुग्ध को पोनेवाले अगवान को ग्ब्राले का पीटकर दिया । तब उस गाय ने उस दिव्य श्री भगवान के मंदिर वाल्मीकी के पास पहुचकर अपने स्तन से इत्पन्न दूध से उनको भौगो दिया । उसको देखजर ग्वाला क्रोध से एक हाथ में कुन्छाड़ी उठाकर उसको भारने के लिये तैयार हुआ । तदा वल्मीकर: स्वामी वात्सल्यं दर्शयन् हरिः ।। ३६ ।। स्वभक्तहननं लोके स्वात्मीयं सहते तु यः । स एव नरकं भुङ्क्ते यावदाचन्द्रतारकम् ।। ३७ ।।