पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४५४

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

458 मदर्थे च कुठारेण हनिष्यति च गां खलः । इति भत्वा रमाकान्तः श्रीनिवासो निरामयः ।। ३८ ।। तुलसीदलमात्रेण मामकेन्दैव यः पुमन् । पूजयेद्भक्तिभावेन तं रक्षाशीति सत्पणः ।। ३९ ।। इयं तु भक्त्या मां नित्यं सिञ्चति क्षीरधारया । इत्थं विचार्य गोविन्दस्तत्प्रहारं निगृह्य च ।। ४० ।। स्वयं जग्राह तं वातं भौलौ स्वे च जगत्पतिः । तध उस वल्मीक में व्रे हुए लक्ष्मीपति, निर्गन, श्रीनिवास हरि ने बात्सल्या दिखलाते हुए. यह ध्मान कर कि जो कोई अपने लिए अपने भक्तों को पीटा जा। सन कर लेते हैं, वे जब तक चन्द्रमा और तारे रहते हैं, तब तक नरक लोगते हैं । मेरे कारण यह दुष्ट इस गौको कुल्हाड़ी से मारेगा ; एवं ऐसा निश्चय कर कि जो पुरुष थेवल एक तुलसी के पक्ष से भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करता है, मैं उसकी रक्षा करता हूँ यह मेरी प्रतिज्ञा है ; यह तो प्रतिदिद दुधार से मेरा अभिषेक करती है, इसलिए उसके प्रक्षा को रोककर अपने झस्तक पर ले लिया ।। ४० ।। कुठारेणातितीक्ष्णेन ताडिते वेङ्कटेश्वरे ।। ४१ ।। शिरःस्फोटं समापन्ने कुठारेण तदोत्थिता । सप्ततालप्रमाणेन रक्तवृद्धिरभूत्तदा ।। ४२ ।। स तं कोलाहलं दृष्ट्वा गोपालो मरणं ययौ । हृते गोपे तदा सा गौरवरुह्य गिरेस्तटात ।। ४३ ।। राजानं समनुप्राप्य वत्सहीनेव दुःखिता । लुण्ठनं परिचक्रेऽथ राजाग्रे राजमन्दिरे ।। ४४ ।। उस तन् कूल्हाड़ी से जगवान् वेंकटेश्वर के सारे जाने और मस्तक फूट जाने , उसमें से सात् ताल प्रमाण ऊँचा रक्त दहने लगा ! वह ग्वाला इस झोलाङ्कल