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437 मृतगोपविलोकानार्थ श्रीवेङ्कटाचलं प्रतेि नृपागमनम् तां दृष्ट्वा विह्वलां यां सः लुठन्ती धारभब्रवीत् । 'क्रिमथै लुठतीयं गौस्त्यक्ता गोसन्ततिः कुतः ? ।। ४५ ।। गत्रा साध च्छ चार ! मेलयैनां रावां गणे ? । इति राज्ञा समाज्ञश्चारस्तपृष्ठतो ययौ ।। ४६ ।। मरे हुए गोपाल को देखने के लिये श्री वेंकटानल पर एाजा का प्सिलिए लौटती है ? इसने और गौओं को ब्इ छोड़ा ? हे परवा ! गी के साथ तुल वाओं और इसञ्चो गयों में मिला इो ! राजा से ऐसी धाज्ञा पाकर वह चरवाह ट्स यौं के पीछे-पीछे इयः ! ४६ ! आरुह्य वेङ्कटगिई. वल्मीकायमुपाश्रितः । पतितं धेनुपं दृष्ट्वा वल्मीकाग्रात्समुस्थिताम् ।। ४७ ।। अन्नई संवीक्ष्य नृधचारोऽथ जगाम नृपभन्दिरम् ।। ४८ ।। चारस्तमान्नम्य नरेन्द्रसन्निधौ गोपालकृत्यं सकलं जगाद । गोपालघातेन कृतं सरतं वल्मीकरन्ध्रधं तभुवाच दीनः ।। ४९ ।। श्री वेंकटाचल पर चढ़कर इल्भीक के पाङ पहुँच उस भरे हुए ग्वाले तथा वल्मीक के ऊपर से उध्खी हुई खात ताल प्रमाण ऊँची भयानक रुधिरधार को भी देखकर वह राजा वेो घर आया और दीन होकर राजा को प्रणाम कर रुस ग्याले की स घटना को कहा शि ग्वाले की चोट के कारण उस वल्मीक से रवतश्राव हो रहा है ॥ ४९ ॥