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43 राजा को वल्मीक से निकला हुआ शाप राजः के इस ात को वल्मीक में ठहरे हुए भगवान ने सुना । अनन्तर बलवाते, शेपाचल पे निन्न भाग पर स्वित श्री गदा ने श्री स्वानितीर्थ के दक्षिण तट पर वल्मीक को फोड़ उससे उत्पन्न हो, गद्गद क७, उधाकुल मुखमंडल, असू से भरे हुए लाल नेल एवं शंख-वक्रके साथ मूर्ति धारण कर चोलराजको छहुत ही कठिन बात कही !! ५४ 1) पापिष्ठोऽसि दुराचार ! राज्यगर्दमदोन्नत ! । अनाथं भक्तिहीनं मां दरिद्रं वनचारिणम् ।। ५५ ।। पितृमातृविहीनं च भार्याबन्धुविवर्जितम् । सुभ्रातृहीनं कुटिल: कुठारेणासिधारिणा ।। ५६ ।। अताडयत्नृपश्रेष्ठ ! तद्दुःखतुलं ह्यभूत् । धेनुपालायुधाधाताज्जातं दुःखं महाद्भुतम् ।। ५७ ।। शिरो भिन्न धेनुपेन् दयाहीसेन दुर्मते । यजमानो गृहे यस्तु न विचारपरो भवेत् ।। ५८ ।। स्त्रीपुत्राछै: कृतं कर्म तस्यानिष्टकरं विदुः । इत्युक्त्वा भगवान्देवः शशाप नृपपुङ्गवम् ।। ५९ ।। पिशाचो भवदुर्बुद्धे मद्दुःखाधानकर्मणा । श्री भगवान ते फा- अरे दुष्ट ! राज्यभदसे उद्धत ! तुम पापी हो । अनाथ, भक्सिीन. दरिद्र, वनवासी, पितामाता हीन, स्त्री और भाई से वर्जित एवं उत्तर भाई से छीन मुझको, हे राजाओं में श्रेष्ठ ! इस दुष्ठले तलवार के समान धारवाले कुठार से मारा है, जिससे मुझको अत्यन्त दुःख हुआ है । ग्वासे के अस्ध्र प्रहार से मुक्षत को अत्यन्सु अद्भुत दु:व हुआ. है ! : हे दुर्युष्धि ! नियी विान्न ने मेरा शिर फोड़ दिया है । जो यजमान घ९पर विचार