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444 श्रीवेङ्कटाचलस्यायोध्यामथुरादिौल्यवर्णनम् एवं कुर्वन् रमानाथस्तत्र लीनोऽभवद्धरिः । कौसल्या कीटकगृहं तिन्त्रिणी दशदिग्रथः ।। १७ ।। गिरिरूपोऽनुजः साक्षादयोध्याभूदधित्यका ! इत्थं रामावतारेण सभां क्रीडामकल्पयत् ।। १८ ।। वेंकटाचल का अयोध्या और मथुरा की तुलना का वर्णन इस प्रकार कार्य करते हुए श्री लक्ष्मीपति बहाँ पर छिपे रहते थे और उन्होंने वल्मीक को कौल्था, तितिद्घो को दशरथ, पर्वत शो वःक्षात् अनुज श्री लक्ष्मणजः एवं उस अधिस्य का (ऊँबी भूमि) को अष्टौऽषा भानकर इस प्रकार रामावतार के समान अपनी क्रीड़ को कल्झना की ।। २८ ।। वल्मीकं देवकी साक्षाद्वसदेवोऽथ तित्रिणी । बलभद्रः शेषशैलो मथुराऽभूदधित्यका ।। १९ ।। स्वामिपुष्करिणी तत्र यमुना च व्यराजत ।। यादवाश्च मृगाः सर्वे खगा वै गोपिकादयः ।। २० !! वं श्रीकृष्णरूपेण क्रीडितो वेङ्कटाचले । अरायिकाणे विकटे गिरि पाच्छेति तं विदुः ।। २१ ।। वल्मीका को साक्षात् देव' की, तिंतिडी को बसुदेत्र, शेषाचल को बलभद्र अदित्यका को मथुरा, वहाँ पर स्वामिपुष्करिणी को यमुना, मृगगणों को यादव एवं पक्षियों को शोषी मानकर इस शकार श्री वेंकटाचल पर कुठण रूप से भगवान ने क्रीड़ा क्षी ॥ २९ ॥ एवं वेदयः साक्षाद्भिरीीन्द्रः पन्नगाचलः । छन्नवल्मीकदेहाढयो बैकुण्ठादधिक्रीह्यभूत् ।। २२ ।।