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44 सुवर्णमुखरो हाभ दी सा विरजा नदी । वैकुण्ठो वेङ्कटॉगईवसुदेवो रमापतिः ।। २३ ।। मुक्ता अजाः पक्षिगणाः मुक्तः रुद्रा मृगोत्तमाः । सनत्कुमारम्भुखा वानरराद्या द्विजोत्तमाः ।। २४ ।। शोभित एवं देवमथ श्री शेषाचल वैकुञ्ठ से औी बढ़कर हुआ । यहाँ सुवर्णसुखरी नाभ की नदी विरजा, वैकङटाचल द्वैकुण्ठ, मेषादि एवं पक्षी मोती, सब मरर्य रुद्र तुभ्य एवं वानर इत्यादि तो सनत्कुमार प्रभृति द्विजोत्तम हैं । २४ ।। गन्तुमिच्छति धर्मिष्ठस्तेन सर्वमनुष्ठितम् । श्रीवेङ्कटाद्रेर्महिमानमुत्तमं जानन्ति न ब्रह्मशिवेन्द्रपूर्वकाः । किभल्पवीय मनुजास्तमोगता जालन्ति विष्णोः स्थलमद्भुत हि तत् ।। २६ ।। इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये नृप िप्रति श्रीनिवासकृतशापहेतूपन्यासादिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः मनुष्य जन्भ पाकर जो धनात्मा पुरुष श्री वेंकटाचल को जाने की इच्छा करता है उसके सब कुछ कर लिया : उससे सव देवताओं से नमस्कृत श्री लक्ष्मीपति प्रसन्न हो जाते हैं । श्री वेंकटवल के उत्तम् थाहात्म्य को ब्रह्मा, शिव, इन्द्र इत्यादि भी नहीं जानते ; उस विष्णु कै अद्भुत स्थल को अल्प शक्तिवाले एवं तोगुण से थुक्त स्नुष्य कृथा धार्नेगै ॥ २६ ॥