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ववृधुः पुष्पवर्षाणि क्रोडनारायणोपरि ।। १५ ।।

44 एवं वदन्तः सुरपुङ्गवास्ते विचित्रमायां जगदीशचेष्टाम् । स्तुवन्त ऊचुस्तभदन्तवीर्य मनन्तशैलं व रातिं च ।। १७ । । इत्यन्योन्यं भाषमाणौ साक्षान्दारायणावुभौ ।। सकौतुकं च संवीक्ष्य स्तुत्वा स्वं स्वं पदं ततः ।। १८ ।। 58 उनके इस अद्भुत झर्म को देखकर ब्रहमादि देवतां वराह और अगवान पर (उनके ऊपर) प्रष्पवृष्टि करडे लगे । “बुग, देश, अश्स्था एवं समय के अनुसार प्राकृत मनुष्यों के समान भगवान् लक्ष्मी की अभिलाषा रखते हुए रमण कहते हैं"---ऐसा कहते एवं जगदीश की प्यारी भाया की स्तुति करते हुए वे वेवसागण बेषाजल एवं रमापति को अन्त शक्तिशाली दोलने लगे और परस्पर बोलते हुए साक्षात् नारायण स्वरूप दोनों को कौतूहल हे साथ येद, इस प्रकार स्तुति करके अप३-अपने स्थान को गये ।। २८ ।। गते देवगणे तत्र वराहो हरिमब्रवीत् । वराह भगवान की जाज्ञा से श्रीनिवाe षा योषाचल देवलाछों के चले जाचे पर श्रीवराह चे छुरेि से कक्षा श्रीवराहानुज्ञया श्रीनिवासस्य शेषाचलप्राप्तिः तद्वदस्व महाभाग इति तेन समाज्ञप्तो त्थगदत्कोलरूपिणा ।। २० ।। श्रीवराह उवाच त्यक्त्वा वैकुण्ठलोकं तु किमर्थं त्वमिहागत ' । १९ ।। प६ वाजा