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450 श्रीवराह बोले-हे संसार को छानन्द देनेवाले ! बैकुण्ठ लोण को छोड़कर आप यहाँ क्यों आये ? हे महाभाग ! साप हिवे । श्रीवराह-रूपी भगवान द्वारा इस प्रकार कहें जाने पर श्रीनिवास दे कहा । (१०) श्रीश्रीनिवास उवाच भृगोरङ्घ्रिप्रपाताच्च रमा कोल्लापुरं गता । तेन दुःखेन सन्तप्तस्त्यक्त्वा वैकुण्ठमुत्तमम् ।। २१ ।। आगतोऽस्मि धराकान्त ! वल्मीके तव दक्षिणे ।! निवसन्तं च मां देव ! धेनुपालो ह्यताडयत् ।। २२ ।। कुठरिणासिधारेण तत्क्षतं मां प्रबाधते । औषधार्थ वराहात्मन् ! गच्छामीह निरन्तरम् ।। २३ ।। दैवेन दष्टवानस्मि त्वामद्येह धराधरम् । अत्रैव निवसामीति संकल्पो मम वर्तते ।। २४ ।। स्थल देह्मवनीकान्त ! यावत्कलियुगं भवेत' । भूगु के लात मारले से लक्ष्मीजी कोल्हापुर चली गयी, उसी दुःख से दुःखी हो, उत्तम वैकुण्ठ को छोड़कर हे धराकान्त ! . मैं आया हूँ ! हे देव ! आपके दक्षिण वल्मीका में रहते हुए मुझ को ग्वालने तुलवार के समान धारवाले कुठार से मारा, वही ब्रण मुझ को दुःख दे रहा है ! हे वराः ! औषध के लिये मैं निरन्तर जाया करता हूँ । दैवयोन से आज मैं आप धराधर को देखा है । वै वहीं पर रहूँगा, यह मेरा संकल्प है । हे पृथ्वीकान्त ! जब तक कलियुग रहता है, तब तक मुझ को स्थान दीजिये । (२४) इति तेन स विज्ञप्तो वराहवदनो हरिः ।। २५ ।। उवाच वचनं देवः 'स्थलं मौल्येन गृह्यताम्' । इस प्रकार वाहे जाते पर क्राह भगदान दे कहा-हे देव ! स्थान लीजिये । मूल्य देकर आप