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454, स्वभक्तानां हितार्थाय विरक्तान् विशेषतः । भुक्तिमापादयन् देवः क्रीडते प्राकृताकृतिः ।। ४४ ।। इत्यव कारणादव यशदा बकुलाऽभवत् ! सा करिष्यति कल्याणं हरेर्वेङ्कटवासिनः ।। ४५ ।। किमलभ्या हरौ तुष्वै.ज्ञानविज्ञानसम्पदः । श्रीभगवान ने बोले-हे देवि ! कुछ समय के बाद दूसरे जन्म में श्रीशैल पर तुम्हारे लोरथ पूर्ण करूंगा ! भगवान से इस शकार वरदान प्राप्त क्षर कल्याणी, नन्द की प्यारी उस यशोदा दे उसी कारण से शरीर छोड़ दिया । उसी की प्रसन्नता के लिये जगत्कारण श्रीवासुदेव, अट्ठाइसर्वे कलियुश में, निर्दोष तथा। ईश्वर होने पर भी यशोदा को सन्तोष देनेवाले गुण और कभों से आविर्भूत होकर, देत्यों की वञ्चना, देवताओं की मुक्ति एवं अपते भक्तों के हित के लिये, विशेष करके विरक्तों को मुति देते हुए, प्राकृत जीवों के समान क्रीड़ा करते है । इसी कारण से,यशोदा बकुलाभालिका हुई है। वही श्रीवेङ्कटाचल निवासी भगवान का विवादि करेगी । ज्ञान, विज्ञान और सम्पत्ति क्या भगवान के प्रसन्न होने पर अलभ्य है । (४५) कश्चिद्देवं पूजयति कश्चिद्देवेन पूज्यते ।। ४६ ।। हनूमता पूजितोऽपि स्वयमर्जुनमर्चति । को वर्णयेद्धरेः क्रीडाँ विचित्रां जन्पावनीम् ।। ४७ ।। नित्यशुद्धस्य वै विष्णोर्यतोऽमुष्याभिवन्दने । कृते पुण्यमृषीणामप्यकृते दोषसंग्रहः ।। ४८ ।। । तस्मात्पूज्यो हरिः सर्वेषिभिस्तत्वकोविदैः ।. पितृभिर्भूमिपैर्विप्रैर्मानवैः राक्षसैर्जडै: ।। ४९ ।।