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457 षष्ठाध्यायः भूगया हित प्रस्थानके, प्रभु भूषण आख्यान । मृग्या पश्च कन्या मिला, नभसुत त्रिन्तवान ।। १ ।। धरा जन्म पद्मावती, नभ नृप सुत वसुदाल । पद्मावती लक्षण कथन, नारद ज्ञाननिधान ।। २ ।। सूत उवाच - स कदाचिद्रमेशस्तु चिन्तयामास वै ह्ययम् ।। भनसा चिन्त्यमाने तु हयः प्रत्यक्षतां गतः ।। १ ।। मृगयाविहारोद्युक्त श्रीनिवासालङ्कारवर्णनम् 59 वायुरश्धत्वमापन्नो रज्जुस्तत्वाभिमानिनी ! उपासर्पत्स्वयं लक्ष्मीस्ततोऽश्व तं स पूजयन् ।। २ ।। तस्योपरि समातिष्ठत्सर्वाभरणभूषितः । मृगया के उपयुक्त श्रीनिवास के अलंकारों का वर्णन सूत जी बोले-उस लक्ष्मीपति ने किसी समय में चौड़े की बिन्ता की । अन से चिन्ता किये जाने पर ही एक घोड़ा प्रत्यक्ष हो गया। वायु ने घोड़े का ॐप धारण किया ।. तत्दो की अधिष्टात्री देवी लक्ष्मीजी स्वयं रस्सी होकर समीप आयीं। सब आभूषणों से शोभित बह लक्ष्मीपति उस घोड़े की पूजा करते हुए (३) शुभ्रं बस्त्रं पञ्चदशहस्तं बिभ्रत्तथोपरि ।। ३ ।। काञ्चीं बद्धवा रमाकान्तः काञ्चीदामविभूषितः । शुभ्रवर्ण चोत्तरीयं पञ्चहस्तं तथा दधत् ।। ४ । । ।