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स सञ्जातो न मे यः स्यात्पुत्रः पितृहिते रत. । क्षुतार्थ कवचं कृत्वा त्वमेहीति स नोदितः ।। ३४ ।। पुत्रहीनं च मां दृष्ट्वा कर्षन्ति यम.िङ्कराः । गच्छ राजञ्जवेनैव यमस्य भवनंत्विति ।। ३५ ।। पाशकुण्ठितसर्वाङ्गः किमु वक्ष्य:भ्यपुलवान् ? । चित्रगुप्तेन लिखितमपुत्रत्वं मनुमते ! ।। ३६ ।। अपुतों की गति नही होती, ऐसः वेदज्ञ कहते हैं; पुत्र के साथ सुवर्ण पात्र में मैंने अन्न भोजन नहीं किया है । सुझ पापी तै छभी भी पुत्र का लालन-पालन नहीं हुआ। । ॐादर करके मुझ से पुत्र को अाभूषण नहीं पहनाया गया । जो पुत्र पिता की भूलाई में लगा रहता है वह मुझ को नहीं हुझा । पुत्र के लिए कवच बनाकर, तुम यहाँ जाओो ऐसा वह ही कहा गया । मुझ पुत्रहीन को देखकर यमदूत “हे राजन् ! शीघ्र ही यमराज के घर चलो' नाङ्कते हुए खींचते हैं। पाश से जकड़े हुए सब अंगवाला, बिना पुत्र का, मैं क्या कहूँ ? हे महामते ! चित्रगुप्त द्वारा मेरी अपुटता लिख दी गयी हैं । (३६) मद्भर्भजेन सुकुलं मार्जितं तु कदा भवेत् ? । दुराचारोऽसि दुर्बुद्धिरपुत्रेति यमेन च ।। ३७ ।। भाषितं वचनं श्रुत्वा कः पुमान्सुखमाप्नुयात् ? । नष्टदीपोऽतिनैष्ठुर्यः ऋष्टोद्भूतकलेबरः ।। ३८ ।। वृथा जातोऽतिपापात्माऽस्म्यात्मनो नरकावहः । तन्तुहीनं कुलं चापि विगताम्बुञ्च वापिकाम् ।। ३९ ।। अङ्गनां भर्तृहीनौ च सन्तो निन्दन्ति संसदि । किं करोमि महीदेव क्व गच्छामीह का गतिः ? ।। ४० ।। कं देवं शरणं गत्वा भवाधि प्रतराम्यहम् ।