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नोपनीतोऽपि च प्रीत्या सुतो मे पञ्चवार्षिकः । अष्टमे वाऽथ दशमे न कृतो दारसंग्रहः ।। ४७ ।। बालस्य जातकम्ऽपि नाकार्ष नापि चाभिधाम् । पुत्राजितं धनं ब्रह्मन्नोपजीवितमद्य मे ।। ४८ ।। अभिषिच्य सुतं राज्ये भार्यया कृतभोजिना । न गतं व वनं विद्वन् ! पारम्पर्यक्रमान्मया ।। ४९ ।। अहो दरिद्रस्य महानुभाव ! मे पुत्रेण हीनस्य कथं गतिर्भवेत् । वृथा शरीरं घटकुड्यसन्निभं जातं सुधर्मस्य कुले सुपावने ।। ५० ।। सचेत होकर व दुःखी राजा पुनः विलाप करने लगे-केश को बहुत ही भूषित करनेवाले. रत्न और वज्रों से जटित शिरका आभूषण (मुकुट) एवं कधच वनवाकर गोद में बैठा, मुझसे पुत्र कभी भी नहीं सजाया गया, पञ्वम वर्ष में मैंने पुत्रका उपनयन भी प्रीतिपूर्वक नहीं किया, अष्टम अश्वत्रा दशम वर्षेमें मैं ने उसका विक्ाह भी नहीं करवाया । * बालकका जातकर्म और नामकरणसंस्कार भी मैं । नहीं किया । पुखका उपार्जन किया हुआ धन् हे ब्रह्मन् । मैं वे आजतक नहीं भोगा । हे विदूवन् ! सब प्रकारके ओग भोग चुकनेवाले मुझसे और मेरी पत्नी से परम्पराके क्रमके अनुसार पुत्रका राज्याभिषेक करके वनगमन नहीं हुआ ! हे महानुभाव ! मुझ दरिद्र और पुत्रहीन की गति कैसे होगी ? सुधर्म के सुन्दर और पवित कुलमें मेरे शरीरवे घड़े और बीतके समान व्यर्थ इी जन्म लिया । मनुष्याणामनाथानां दुर्लभं पुत्रजन्म च । बहुपुण्यवशात्पुत्रो जायते मानवोदरे ।। ५१ ।।

  • “पञ्चमे वीर्थकामस्य' मनुके इस वचनसे पञ्चम वर्षमें उपनयन

शास्तसम्मत हैं । “ प्रतिवेदं ब्रह्मचटर्य द्वादशब्दानि पञ्चवा " यज्ञवल्क्यके इस अवन से उपनयनके अनन्तरं पांच वर्षतक अथवा ग्रहणपर्यन्त दो-तीन वर्षतक्ष भी ब्रह्मचर्य का पालन विहित होने से गौणरुपसे पुरुषका विवाह आठ वा दश वर्ष में भी शास्त्रसम्म है । 60