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इत्येवं संशयानं तमाकाशाख्यं नराधिपम् । उवाचाऽकाशगा वाणी पुत्रीयं तव वल्लभा ।। ६२ ।। संरक्षनां महाभाग ! बहुकीर्तिफलप्रदाम् । इस प्रकार बोलकर वह् श्रेष्ठ राजा उसको हाथ से पकड़कर बोले-क्या यह इरि दा शिवकी दुर्धर माया है, जिसको मैं अभी ग्रहण कर रहा हूँ ? इस प्रकार सन्देह करते हुए आकाश नाभक राजाको आशाशवाणी हुई-बहुत कीर्तिरुप फल देनेवाली यह आपकी ही प्यारी पुत्री है । हे महाभाग ! इसकी रक्ष झरी । इत्यनन्तगतो वाणीं श्रुत्वा राजाऽतिहर्षितः ।। ६३ ।। तां कन्यां प्रतिगृह्याशु स्वभार्या प्रत्युवाच ह । श्रुणु भद्रे ! महाप्राज्ञे ! देवदतामिमां शुभाम् ।। ६४ ।। संवर्धय वर पुलीं गर्भजाती सुतामिव । इत्युक्त्वा तत्करे दत्वा बहुदानमथाकरोत् ।। ६५ ।। इस प्रकार आकाशवाणी डुनचर उस राजाने बहुत आनन्दित होकर उस कन्या को शीघ्र हो ग्रहण कर अपनी स्वी कहा-हे भद्रे ! हे महाप्राज्ञे ! सुनो देवताओं से दी हुई इस श्रेष्ठ सुन्दरी पुत्रीका अपने गर्भ से उत्पन्न, पुत्री समान पालन करो । ऐसा कहकर उस के हाथ में उस कन्या को समर्पण करके उस राजाते बहुत-सा दान दिया । (६५) वियन्नृपस्थ वसुदांनाख्यसुतोत्पत्तिः कन्याऽगमनपुण्येन सा देवी गर्भमादधे । गर्भिणीं स्वसतीं दृष्ट्वा चक्रे पुंसवनं पतिः ।। ६६ ।। पञ्चमासे तु सञ्जाते सीमन्तं नृपपुंङ्गवः । कारयामास विधिना ब्राह्मणैर्यजुषां गणैः ।। ६७ ।।