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47 इत्थं काले गते तस्मिन्सा बाला यौवनं गता । यौवनाढ्यां विशालाक्षीं दृष्ट्वा राजाप्यचिन्तयत् ।। ७९ ।। विचारयन्स नृपतिः पुत्र्यर्थ वरमुत्तमम् । न प्राप दुःखसंतप्तः कस्मै देया मया सुता ।। ८० ।। इति चिन्ताब्धिमग्दोऽसौ पुत्रीपरिणये तदा । असंमतोऽकरोत्पुत्रं परं संस्कारसंस्कृतम् ।। ८१ ।। तदोपनीतं सद्योऽभूत्पुत्री यौवनपीडिता ।। ८२ ।। इस प्रकार उस समयके व्यतौल होने पर वह कन्या युवती हुई । उस बड़े नेत्रवालीको युवाबस्थामें देखकर राजा चिन्ता करने लगे । यह पुत्री मैं किसको दूं, ऐसा सोचते हुए, उद्य दुःखसे. सन्तप्त राजाने पुत्रीके लिये उत्तम वर नहीं पाया । मेरी पुत्री किसको दी जाय इस चिन्ता-समुद्भमें नग्न उद्य राजाने अपनी इच्छा न होने पर भी पुत्रका उपनयन संस्कार किया ! वह राजपुत्री ड्राह्मणों से अपने छोटे भाई का उपनयन् सुल उसी क्षण जधानी से पीड़ित हुई। (८२) सा कदाचिद्वनं बाला सखीभिः परिवारिता । जगाम पुष्पाण्याहतुं कन्या कमललोचना ।। ८३ ।। वसन्तमागतं वीक्ष्य वचे ताभिर्भयाकुला । पुष्पाण्याहारयामास तरुमूलभुपाश्रिता ।। ८४ ।। किसी समय वह कमलनयनां कन्या सखियों के साथ में पुष्प लेने के लिये गयी !' वृक्ष झे मूल में खड़े. होकर मी कन्याने धन में वसन्तको 'आया हुआ देखकर सखियों से फूलोंको तोड़वाया । तदागतो नारदस्तु वृद्धो भूत्वा जटाधरः । । धूलीधूसरिताङ्गश्च कपूरसदृशद्युतिः ।। ८५ ।। : । .