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472 तब धूलिसे धूसर अंगवाले, कपूर के समान कान्तिवाले, जटा धारण किये हुए, वृद्ध नारदजी वहाँ पर आ गये ! आगतं तं मुनिं दृष्ट्वा विस्मयाकुलमानसा । पद्मावती सखीः प्राह चटुला भृशकातरा ।। ८६ ।। कोऽसौ भयङ्करो बालाः क्व यात्यत्र विचार्यताम् । आये हुए मुनिको देखकर अत्यन्त कातर हो, बोलने में चतुर वह पावसी आश्चतिमन से अपनी सखियों से बोली-ालाओं। यह मयावन पुरुष कौन है और कहाँ जाता है? इसका विचार करो । {८६) कोऽसि विप्र महाप्राज्ञ किमर्थ त्वमिहागतः । वाक्यं तासौ समाकण्यं गुरुः प्रोवाच सद्वचः ।। ८ ।। इत्युक्तास्तास्तदा कन्याः पप्रच्छुः स्थविरं द्विजम् ।। ८७ ।। (८५) उसके लिये इस प्रकार कहे जाने पर उन कन्याओं ने उस वुद्ध ब्राह्मण से पूछा-हे विश्! आप कौन है ! और यहाँ किसलिये आये दै? उनले इस बातको सुनकर गुरुजी शुभ बास झीले । (८) अहं कुलगुरुः साक्षाद्युष्माकं बरयोषिताम् । हस्ते दर्शय मे पुत्रि लक्षणानि वदामि ते । उवाच लज्जया देवी किं वदिष्यसि है द्विज ।। ८९ ।। नारद जी बोले-तुम सब श्रेष्ठ स्त्रियोंका मैं कुलगुरु हूँ। है पुती ! अपने छाथ दिखलाक्षी । मैं तुम्हारे लक्षणों को बतला दूंगा ! पश्चात् उस देवी ने लज्जा से कहा-हे ब्राह्मण ! तुम क्या इतलाओोशे ।