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वृत्तान्तो ह्यखिलो मत्तो ज्ञेयः पण्डितनन्दिनि ! ।। २३ ।। युष्माभिरुच्यतां वार्ता गोत्रनामकुलादिकम् । इति तेन समाज्ञप्तो प्रोवाच नृपनन्दिनी ।। २४ ।। पद्मावती और श्रीनिवास में परस्पर सम्वाद श्रीनिवास बोले-कन्थ:की इच्छा, यही मेरा मुख्य कार्य है, उसके पश्चात् में पुम लोगों से बोलता हूँ । उन लोगों से इस प्रकार बोलकर पद्मावती देवीसे बोलवे लगे कि पुराण जाननेवाला मेरा कुल सिन्धुपुत्र (चन्दवंश) हैं, मेरे पिता वसुदेव, मेरी भाता देवकी, भेरे बड़े भाई श्वेतकेश (बलभद्र); मेरी भगिनी सुभद्रा, मेरे मित्र पार्थ (अर्जुन) और हे देवि ! मेरे . बान्धववर्ग पाण्ड है । नामकरण किये हुए एवं भेरे हुए छः महात्मा पुत्रोंके वियोगसे दुःखी मेरे माता-पिताने, पिताके शरीरको प्राप्त हुए सप्तम् पुत्रका “ रारंभ ' नामसे नामवारण संस्कार किया । मैं अष्टमीमें शाठवां पुक्ष हुआ तथा मेरे पीछे सुभद्रा हुई । हे देवि ! मेरा वर्ण माताके जैसा है.! कृष्णपक्ष में मेरा जन्म है । इसलिये हे देवि ! कृष्ण ऐसा संस्कृत नाम मेरा रखा गया ! विद्वान लोग वर्णसे और नामसे भी मुझे कृष्ण ही कहते है। है पण्डितकी पुली ! मुझे द्वारा मेरा सब वृत्तान्त बतला दिया गया, आप भी अपने गोत्र, नाम, कुल इत्यादि की वार्ता कहिले । उनसे इस प्रकार कहे (२४) आकाशराजतनयां निषादाधिप विद्धि माम् । नाम्ना पद्मावतीं कृष्ण कुलं शीतकरस्य च । अत्रिगोत्रं किरातेन्द्र शीघ्र गच्छेति चाब्रवीत् ।। २५ ।। पद्मावती बोली-हे कृष्ण ! हे निषादोंछे स्वामी ! मुझेको आकाशराजक पुत्री, पद्मावती नामकौ चन्द्रवंश एवं अत्र गोस्वाली जानी । हे किरातेन्द्री झाप शीघ्र चले जाईये ।