पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४९९

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48:: किमर्थ निष्ठुरं वावधं मन्दं किं न प्रभाषसे । अन्न कांक्षन्ति वै लोकाः यो ददाति नरोत्तमः ।। २६ ।। स पुमान्पुण्यमाऽोति जलदोऽपि फलं लभेत् । अदिशन्मृदुभाषी च न तु तिष्ठुरभाषणः ।। २७ ।। अथाहं काममुद्दिश्य पात्रभूतोऽस्मि साम्प्रतम् । सुखमेष्यसि दादेन त्वन्ते स्वर्ग गमिष्यसि ।। २८ ।। आत्मानं दिश मह्य त्वं किं वृथा निष्ठुरोक्तिभिः ।। सा तस्य वचनं श्रुत्वा क्रोधात्ताभ्रविलोचना ।। २९ ।। श्रीनिवास बोले-यह निष्ठुर वाक्य व्य बोलती हो ? धीरे क्यों नहीं बोलली? भनुष्यगण अन्न चाहते है, जो अनुष्य श्रेष्ठ अन्न देवाला है वही पुरुष स्वर्गको प्राप्त करता है । जल लेवाला अश्वः अहीं देतेवाला भी मृदुभाषी होनेले फल पाता है, निष्ठुर बोललेवाला मृहीं पातt ! मैं इस समय काम उद्देश्गसे आया हुआ पात्र हूँ ! उसको देनेसे सुख पाओोगी और अन्त स्वर्गको भी जाओगी । अतएव तुम मुझको अपनी देह समर्पण कर दो, स निष्ठुर वचनसे क्या? पश्चात् वह उनके वचनको सुनकर क्रोधसे, रहचैत्रवाली होकर धोली । अवाच्यं वदसे मूढ ! जीवनेच्छा न विद्यते। आकाशराजस्त्वां दृष्ट्वा हनिष्यति च संशयः । यावन्नायाति तावत्त्वं गच्छ शीघ्र स्वमालयम् ।। ३० ।। पद्मावती बोली-रे मूढ़ ! तू अवाच्य वचन. बोलता है, क्या तेरी जीवेकी इच्छा नहीं है? आकायराज तुमको देखकर मार डालेंगे इसमें सन्देह नहीं । जबतक वे नहीं आते हैं उसके पहले ही अपने घर वले जाऔी । . (३०)