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32 मुनिलोग भी अत्यन्त प्रसन्न हुए कि साक्षात् विष्णु भगवान ही हम लोगों के यज्ञ में आये, अत एव हम लोगों के परम भाग्य है और हम लीगों का जीवन भी धन्य हैं। इस तरह उन्होंने और भी कुछ कहा था, उसे मैं आप लोगों से (२८-३०) वृद्धस्य कुमारधारास्नानेन कौमारप्राप्तिः पुरा तु वेंकटाधीशश्चचार गिरिमूर्धनि । कुमारः सन्विशालाक्षः कोमलांगो मनोहरः ।। ३१ ।। वृद्धः कश्चिद्द्विजो दृष्टस्तेन जर्जरिताकृतिः । मग्नदृष्टिर्भग्नजानुः क्षुत्तृष्णापरिपीडितः ।। ३२ ।। मार्गभ्रष्टो वने तत्र कृत्रचिच्छैलमाश्रित । ' क्व वा गतोऽसि कौण्डिन्यः? शतवृद्धं विहाय माम्' ।। ३३ ।। इति जल्पन्मुहुः शुष्ककण्ठोष्ठपुटतालुकः । अथ बूढे के कुमारधारा में स्नान से कौमार प्राप्त का वर्णन प्राचीन सभय में वेंकटाधीश, विशालाक्ष, कोमल शरीरवाले, अत्यन्त मनोहर, सुन्दर सुकुमार स्वरूप में श्री भगवान उस पर्वत शिखर पर विचरण करते थे । उसी समय वे किसी अति वृद्ध, जर्जर आकृति वाले, अन्दर घुसे नेत्रवाले, झुकी हुई कमरवाले, क्षुधा एवं तृष्णा से पीडित, रास्ता भूले हुए, तथा उसी जंगल के एक चाट्टन पर बैठे हुए एक वृद्ध ब्राह्मण को देखे, जो सूखे हुए कंठ, तालू, ओठ, प्रहपुर से युक्त ऐसा कह रहा था कि हे कौंडिन्य ! मुझे इन सौ वर्षों को अवस्था में छोड़ कर किधर चल गए। (३१-३३) तत्रस्थेन कुमारेण 'किमर्थमिह जल्पसि ।। ३४ ।। न कश्चिदत्र मनुजः कौण्डिन्यः कुत्र तिष्ठति । इत्युक्तः प्राह वृद्धश्च नितरां मृतवानहम् ।। ३५ ।। कथं गच्छाम्यहं तावदाश्रमं दूरतः स्थितम् । शौचाचारक्रियाऽशक्त रिक्तं बन्धुविवर्जितम् ।। ३६ ।।