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482 कार्यान्ते मरणं सौख्यं कार्यहानौ मृतिः कुतः । कथं हन्यात्स राजेन्द्रस्त्वधर्माभिमुखो हि माम् ? । त्व कन्याऽहं वरा दाव ! कन्नान्याय महापत्तः !! ३१ ।। श्रीनिवास बोले-कार्य की सफलता में मरना भी सुख है, कार्य की हानि में मरना कहा ? अधर्मका अभिमुख होकर वह राजा मुझको क्यों मारेगा ? हे देवि! तु कन्या और मैं वर हूँ, इसमें राजा की दृष्टि से अन्याय क्या है । (३१) श्रुणु मूढ़ न जानासि बालभावेन किं वृथा । त्वां दृष्ट्वाकाशराजोऽपि कृत्वा ते गद्धबन्धनम् ।। बध्नीयान्निगाडैभूर्ख भविष्यत्प्रवदाम्यहम् ।। ३२ ।। पयाबती बोली-रे मूढ़ ! सुनो, तुम नहीं जानते हो, व्यर्थ की बकजाद से क्या लाभ ? तुमको देखकर ही आकायराज गृले में रस्सी बान्धकरु, बेड़ियों से जकड़वा देंगे, य मैं तुम्हारा भविष्य कह रही हूँ। (३२) निश्चित्य मरणं देवि रन्तुकामोऽस्म्यहं त्वया ! जातस्य मरणं नित्यं पूर्वकर्मफलानुगम् । आकाशराजो धर्मात्मा कथं हन्यादनागसम् ।। ३३ ।। श्रीनिवास बोले-हे देवि! मैं मरना निश्वय कर तुम्हारे साथ रमण करवै। की इच्छा करता हूँ । जो उत्पन्न हुआ है उसका पूर्वकर्म के फलके अनुसार मरन अवश्यम्भावी है। धर्माहमा आकाशराज निरपराधको क्यों मारेंगे । (३३) पद्भावत्युवाच गौरवं यन्निषादेन्द्र नृपस्यास्य हरेर्यथा । वरदस्याथ रङ्गस्य वेङ्कटाचलवासितः ।। ३४ ।।