483 तद्रक्ष त्वं महाबाहो सुखं गच्छ स्वमालयम् । इत्युक्तोऽपि तया देव्या निषादेन्द्राकृतिर्हरिः ।। ३५ ।। निराकृत्य च तद्वाक्यं ह्यस्थः पुनरापतत् । हयमग्रगतं वीक्ष्य सा बाला वाक्यमब्रवीत् ।। ३६ ।। पद्मावती बोली-हे निषादेन्द्र ! इस राजा का श्रीवरदराज श्रीरङ्गनाथ और श्रीवेङ्कटाचलवासी भगवान् के समान गौरव है । अतएव तू अपनी रक्षा करो तया सुख से अपने घर जाओ । स देवीसे इस प्रकार कहे जाचेपर वह निषाद के आकारवाले भगवान् उसके दाक्यका अनादर कर घोड़े पर चढ़े हुए फिर भी आगे बढ़े और घोड़े को आगे आया हुआ देखकर वह स्त्रीबोली । (३४-३६); पद्मावत्युवाच त्यक्त्वा च पितरौ बन्धून्भ्रातृभुख्यान्वने चरन् । अनाथो म्रियसे व्यर्थ किमर्थ काकभोजनम् ।। इति तस्या वचः श्रुत्वा तामूचे वारिजेक्षणः ।। ३७ ।। पद्मावती बोली-माता, पिता, भाई, बन्धु इत्यात्रि मुख्य यणोंकों छोड़कर जङ्गलमें घूमते हुए अनाथ होकर व्यर्थ मरते हो, काकभोजन सिलिए है? इस प्रकार सभे वचनको सुनकर झमलनयन भगवान् उससे बोले । (३७) श्रीनिवास उवाच विधिना लिखितं यत्तु न तद् व्यर्थ भविष्यति । जयो वाऽपजयो वा स्यात्वयि भोगं करोम्यहम् ।। ३८ ।। श्रीनिवास बोले-द्रहमा से जो लिखा गया है, वङ् व्यर्थ नहीं होगा । हो अथवा पराजय, तुमसे भोग अवश्य करूंगा । इत्युक्ता कोपताम्राक्षी सखीभिः परिवारिता । तर्जयन्ती जगद्योनि शिलापाणिः समागमत् ।। ३९ ।। वय
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