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484 ताडयामास भौविन्दं शिलौधैः शीघ्रगात्रैः । ताड्यमानः शिलावणैत्र्यपतद्धोटराट् स्वयम् ।। ४० ।। इस प्रकार कहे जाने श्र क्रोधसे लाल देटवाली हो, हाथ में पत्थर लिए हुए, पद्मावती अपनी सदियों से रोके जानेपर भी घनत्कारण इरिको ललकारते हुए पासमें आयी और उन पत्थरोंसे शीघ्र ही गोविन्दको मारने लगी। पत्थरकी बर्षा से पिटा हुक्षा वह घोड़ा स्वयं गिरा पडः । (३९-४० ) त्यक्तासुं स ह्ययं दृष्ट्वा मुक्तकेशो मुहुर्मुहुः । पश्यन्पश्यन्दिशः सर्वा अभ्रमद्विभ्रमन्निव ।। ४१ ।। हृयो वै सङ्कटं प्राप्तो ममात्र कृतसन्निधेः । इत्युच्चरन् रमाकान्तो जगामोत्तरदिङ्मुखः ॥ ४२ ।। आरूढ सोपान्गणो गिरेर्विभु विडम्बयंल्लोकमवाप शय्याय । प्राप्याधिमानन्दयुतोऽपि माधवो । यथा युगान्ते वटपत्रशायी ।। ४३ ।। भगवान् उस घोड़े को मरे देखकर, केशोंको खोले हुए सव दिशाओंको देख देखकर पागलके समान घूमने लगे और मेरे घोड़ेको यहाँ पर संकट प्राप्त हुआ है ऐसा बोलते हुए वक्ष्मीपति उत्तर दिशो में रुये तुथा उ पर्वत के सोपानपर चढ़कार संसारो माहते हुए शव्यापर पड़ गये, जिस प्रकार आनन्द से युक्त माधव युग के अन्त वटके पत्रपर मोये थे । (४३) इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे श्रीवेङ्कटाचलमाहात्म्ये पद्मावती श्रीनिवासयो : परस्परं संवादादिवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः